Friday, December 31, 2010

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
------------------------------------------------------------- अदम गोंडवी

Saturday, November 13, 2010

तुम मिले....

तुम मिले..दिल खिले...और जीने को क्या चाहिए,
न हो तू उदास ..तेरे पास-पास.... मैं रहूँगा जिंदगी भर

Monday, November 8, 2010

बदलाव...

कहते हैं लोग शादी के बाद बदल जाते हैं,
मेरे भी कुछ जानने वाले बदल गए,
मैं बहुत तरीके से घर चलाना जानता हूं
तकिया की खोल,चद्दर,और बेड शीट
खुद ही धुल लेता हूं
किचेन का सारा काम जानता हूं
और
खाना भी बहुत अच्छा बना लेता हूं
मेरे दोस्त कहते हैं
मेरी बीवी बहुत खुश रहेगी
अब कौन बताए इन बेवकूफ दोस्तों को
कि
शादी के बाद
लोग बदल जाते हैं...

Saturday, November 6, 2010

शुभ दीपावली........

चाय बैठकी के सभी सदस्यों, पाठकों एवं दर्शकों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं

Wednesday, October 6, 2010

लोकल के लोग....




30 सितम्बर 2010,
आज के दिन आने वाला था अयोध्या के विवादित स्थल का ऐतिहासिक फैसला । सुबह सुबह गांव से पिता जी का और मेरे ससुराल से मेरी सासू मां का फोन आ गया। दोनों लोगों का मुझसे फोन पर पहला यही सवाल था कि आज ऑफिस जाओगें। मैं बिस्तर पर नींद में ही बोला, हां जरूर जाऊंगा। क्यों ? सासू मां ने कहां, यहां इलाहाबाद में बहुत तनाव है। चारों तरफ पुलिस ही पुलिस नजर आ रही है । मुंबई तो और भी खतरा होगा। हो सके तो ऑफिस न जाओं। मैंने नींद में ही उनको सांत्वना देने के लिये बोल दिया ठीक है देखता हूं । इसके बाद मुझे लगा की वाकई में आज हर घर के लोग ऐसे ही डरे होगें। मैं बिस्तर छोड़ चुका था । नीतू ( मेरी वाइफ ) से बोला, खाना आज जल्दी बना दो मुझे जल्दी ऑफिस पहुंचना है । पिता जी से और सासू मां से फोन पर हुई बात मेरी बीवी भी सुन रही थी । उसने भी मेरी तरफ उदास मन से देखा और सवाल किया सचमुच ऑफिस जाओगे। मेरे जुबान से अजानक निकला पागल हो क्या ? तुम भी सब की तरह सवाल करती हो। जानती हो जब सबकी छुट्टियां होती तब हमें ऑफिस जाना जरूरी होता है और ऐसे बवाल के वक्त तो हम लोगों का ऑफिस जाना........। मैं बिस्तर से उठ चुका था। जल्दी जल्दी तैयार होने लगा । सोचा आज ट्रेन में हो सकता है भीड़ कम हो । लोग हो सकता है अयोध्या के मसले के चलते घर से न निकले हो । लेकिन घर से निकला तो बाहर का माहौल रोज की ही तरह था । स्टेशन पहुंचा तो लोकल में लोगों की भीड़ रोज की तरह थी । ट्रेन में चढ़ा तो वहां भी रोज की तरह खड़े ही रहना पड़ा । अचानक ट्रेन के अंदर अयोध्या के फैसले पर यात्रियों में चर्चा होने लगी । ट्रेन में सभी कौम के लोग बैठे थे । साढ़े तीन बजे आयोध्या मामले पर फैसला आने वाला था । कुछ गुजराती बंधु इस मुद्दे पर बात कर रहे थे । एक शख्स बोला ये सब नेताओं की वजह से हो रहा है । आम आदमी को इससे अब क्या मतलब है । सारी आग यही नेता लोग लगाते हैं । कभी किसी नेता को मरते हुए देखा है। हम तो कहते हैं अयोध्या में विवादित स्थान पर एक तरफ मंदिर बना दो एक तरफ मस्जिद। जिसको आना हो वो आकर वहां पूजा करे या नमाज पढ़े। तभी एक शख्स की आवाज आयी, विदेश में भी ऐसा ही कोई मामला था। वहां म्युजियम बना दिया गया। मामला ही खत्म । तभी किसी ने बेसुरे राग में गाना शुरू किया, विषय विकार मिटाओं पाप हरो देवा । मेरी लोकल ट्रेन अंधेरी पहुंच चुकी थी । एक बूढ़ा शख्स चढ़ता है । तमाम गुजराती भाई उन्हें दद्दू कह कर बुलाते हैं । ( तमे आवो दादा जी, बेसो ) कुछ लोग लोकल ट्रेन में दादा जी को बैठने की जगह भी देने की गुजारिश करते हैं । लेकिन दद्दू खड़े रहते हैं । एक शख्स बोलता बताइये दद्दू करोड़ पति हैं । पास में मंहगी मंहगी गाड़ियां भी हैं। लेकिन रोज लोकल ट्रेन में खड़े होकर चलते हैं। तभी एक शख्स की आवाज आती है ये मुंबई है भाई, यहां अच्छे अच्छे लोगों को ट्रेन से चलना पड़ता है। गाड़ी से चलेगे तो अपने ऑफिस और दुकान तक समय से पहुंच ही नही सकते। लोकल की भीड़ में अयोध्या का मामला दबता जा रहा था । लोग अपने धंदे की बात पर उतर आये थे । चांदी का भाव आज 20 हजार पहुंच गया है । दिवाली में कहा जा रहे हैं। कोई बोला मैं जयपुर जा रहा हूं । गाड़ी मुंबई सेंट्र्ल पहुंच चुकी थी । मैं उतर गया वहां भी भीड़ थी । हां रोज की अपेक्षा पुलिस वाले आज ज्यादा दिखे।

अयोध्या विवाद मामले पर फैसला आ चुका था । रात को ऑफिस से जल्दी छूट गया था । लोकल से घर जा रहा था । विरार की लोकल में आज रोज की तरह थोड़ी कम भीड़ थी । खड़े होने की जगह मिल गयी । 45 मिनट का सफर तय करके अपने स्टेशन पहुंचने वाला था । लोग चुपचाप अपनी जगह पर बैठे थे या फिर खड़े थे । लेकिन जैसे स्टेशन नजदीक आया एक लड़के ने पूछा, अरे हैदर भाई कल छुट्टी है क्या। दूसरे ने जवाब दिया क्यों। अरे हमने सोचा फैसला आने के बाद कल हो सकता है कर्फ्यू वर्फ्यू लग जाये। तो घर पर आराम करे । अयोध्या फैसले से बस यही तो अपना एक फायदा हो सकता है। कम से कम छुट्टी तो मिल जायेगी। तभी स्टेशन आ गया। हैदर नामक उस लड़के ने लोकल से उतरने की पोजीशन ली और बोला चल सुरेश, गुड नाइट । कल फिर दफ्तर में मिलते हैं।

Saturday, October 2, 2010

सियासत...

सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है।
मगर जब गुफ्तगू करता है चिंगारी निकलती है।।
कल बुखारी साहब का साक्षात्कार किया,उनके एक एक अल्फाज़ ज़हर से बुझे हुए थे,ऐसा लग रहा था इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने साठ साल पुराने जख्मों पर बेदर्दी से नमक रगड़ दिया हो,मुझे रत्ती भर आश्चर्य नहीं हुआ क्यों कि बुखारी साहब तो आग उगलने के महारथी ही हैं..आश्चर्य तो इस बात पर था कि 2 लाख से ज्यादा नमाज़ अदा करने आए मुस्लिम युवा भी बुखारी की भाषा बोल रहे थे...गुफरान इरफान नूर मोहम्मद,असलम,जाकिर जाहिद और बहुत सारे,ये वो लोग थे जो पढ़े लिखे हैं,आई.आई टी,पी.एम.टी,बी.काम,एम काम करने वाले युवा और फिर आफिस आकर मुलायम का बयान सुना...मन सिहर उठा कुछ सोचकर।

Thursday, September 30, 2010

ना हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा


इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
अच्छा है अभी तक तेरा कोई नाम नहीं है
तुझ को किसी मजहब से कोई काम नहीं है
जिस इल्म ने इंसान को तकसीम किया है
उस इल्म का तुझ पर कोई इलज़ाम नहीं है
तू बदले हुए वक्त की पहचान बनेगा
इंसान की औलाद है इन्सान बनेगा
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया
हम ने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया
कुदरत ने बख्शी थी हमें एक ही धरती
हमने कहीं भारत कहीं इरान बनाया

जो मोड़ दे हर बांध वो तूफ़ान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

नफरत जो सिखाये वोह धरम तेरा नहीं है
इन्साफ जो रौंदे वोह कदम तेरा नहीं है
तू अमन का और सुलह का अरमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

ये दीन के ताजर ये वतन बेचने वाले
इंसानों की लाशों के कफ़न बेचने वाले
ये महल में बैठे हुए कातिल ये लुटेरे
काँटों के मद रूह-ऐ-चमन बेचने वाले
तू इनके लिए मौत का ऐलान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

Thursday, August 26, 2010

माँ

जन्म -२६ अगस्त १९१०

Wednesday, August 18, 2010

Saturday, August 14, 2010

स्वतंत्रता दिवस "स्पेशल"----- 1

ये है हिन्दुस्तान मेरी जान !!!!!!



साभार: छायांकन- यु.सी.महेश

Saturday, August 7, 2010

मंहगाई...

चावल दाल रोटी
टांग दिए गए आसमान पर
दिन भर टूंगों
निहारो उसे
और महसूस करो
कि
भरा है पेट
क्यों कि दाल रोटी तक
पहुंच सकती है
सिर्फ
रसूखदारों की सीढी
तुम अमीर थोड़े हो...।

Tuesday, August 3, 2010

उनकी और हमारी हमारी महफिल।

रोज़ शाम को सजती है महफिल
रोड के उस पार उनकी
रोड के इस पार हमारी
छलकते हैं पैमाने
रोड के उस पार उनके
रोड के इस पार हमारे
हर घूंट के साथ नशीली होती है शाम
रोड के उस पार उनकी
रोड के इस पास हमारी
वो हर घूंट के साथ लेते हैं सुट्टा
हम हर घूंट के साथ लेते हैं भुट्टा
उनके और हमारे बीच
एक सड़क की दूरी
फिर भी नाम अलग अलग
लोग उन्हें कहते हैं शराबी और नशेड़ी
और हम!हम ठहरे चयेड़ी
भई वाह!पीता और पिलाता है
काशी भी गजब आदमी है
मधुशाला के सामने
चाय की दुकान चलाता है।


नोट:
सुनने में भले ही अजीब लगे लेकिन मैं और मेरे दोस्त रोज़ शराब की दुकान के सामने बैठकर चाय पीते हैं। दरअसल यह दुकान मधुशाला के ठीक सामने है और काशी नाम का यह लड़का इस दुकान को चलाता है।

Saturday, July 31, 2010

जियो हाजी भाई...।

फिल्मकारों को गैंगस्टर, अंडरवर्ल्ड, माफिया, डॉन और तस्कर हमेशा से भाते रहे हैं। ऐसा स्वाभाविक भी है। 50 के दशक में, एक दिन सपनों में जीने वाली बम्बई दहल गई थी। वजह थी दिन-दहाड़े एक बैंक में हुई डकैती। मुम्बई की यह पहली बैंक डकैती फोर्ट इलाके के द लॉयड बैंक में हुई थी। इसी दौरान दिल्ली से बम्बई गए अनोखे लाल नामक व्यक्ति ने 16 लाख की यह डकैती डाली थी। अनोखे लाल को इस डकैती का आइडिया बैंक डकैती पर बनी अमेरिकी फिल्म ‘हाईवे 301’ से मिला था। डकैती के बाद से फिल्म ‘हाईवे 301’ को बम्बई में बैन कर दिया गया था। गैंगस्टर से बम्बई और बॉलीवुड का यह पहला परिचय था …….
“सुल्तान मिर्जा़”…. जुर्म की दुनिया का बेताज बादशाह,जिसे खाकीधारियों की नज़र में स्मगलर कहा जाता है और गरीबों की ज़ुबान में मसीहा...। वो एक को लूटता है और फिर दस में बांट देता है...सब कुछ फिल्मी....बिल्कुल फिल्मी..
जी हां मैं वही बात कर रहा हूं जो आप समझ रहें हैं फिल्म वंस अपान द टाइम इन मुंबई की,फिल्म की रिलीज होने के पहले बहुत सारे कयास सामने आए किसी ने कहा कि मुंबई के पहले डॉन हाजी मस्तान की निजी जिंदगी में दखलांदाजी कर रही है मिलन लुथारिया की यह फिल्म, तो वहीं हाजी मस्तान के घर वालों को यह आशंका सता रही थी कि पता नहीं फिल्म में क्या क्या दिखाया होगा..।
आखिरकार फिल्म रिलीज हुई,..मद्रास में भीषण बाढ़ आई और एक परिवार पानी की लहरों पर शांत हो गया,परिवार का एक बच्चा बच गया जो पता नहीं कैसे जादू की नगरी यानि मुंबई पहुंच गया...बावा भी कुछ ऐसे ही मुंबई पहुंचा था,लेकिन लहरों से बचकर नहीं अपने पिता हैदर मिर्जा़ के साथ.. बावा यानि हाजी मस्तान,हाजी मस्तान का बचपन का नाम बावा था... हैदर मिर्जा ने मुंबई पहुंचकर साईकिल और टु व्हीलर रिपेयरिग की एक दुकान खोली..अपने पिता के साथ बावा भी दुकान में हाथ बंटाता था..लेकिन दुकान पर उसका मन नहीं लगा,किस्मत ने साथ दिया और उसे एक नौकरी मिल गई,कुली की नौकरी,बावा बंदरगाह में कुली बन गया और अदेव और हांग कांग से आने वाले मुसाफिरों का सामान उठाने लगा..बंदरगाह और मुसाफिरों से याराना कुछ इस कदर बढ़ा कि समंदर की लहरों ने सीढि़यां बनायीं और और उस पर चढकर बावा जुर्म की उस मीनार पर जा बैठा जहां सिर्फ एक ही सरताज था खुद बावा...। बावा 1 मार्च 1926 को तमिलनाडु के पनैकुलम में पैदा हुए था बावा के बारें में किसी ने सोचा भी नही होगा कि एक अदद जूते पहनने को तरसने वाला यह शख्श पूरे मुंबई को अपने पैर की जूती बना लेगा...।
खैर...मैने अभी अभी वंस अपान द टाइम इन मुंबई देखी है, मुझे फिल्म बहुत अच्छी लगी उसके बाद मैने हाजी मस्तान की जीवनी अपने गूगल गुरु से निकाली और चाट ली...मुझे फिल्म भी अच्छी लगी और हाजी भाई की जीवनी भी...एकदम लल्लनटॉप। दिल्ली में अपने यूएनआई आफिस में बैठा हूं..बाहर जोरदार बारिश हो रही है कहीं शूट पर नहीं निकलना था और मेरे पास कोई काम भी नहीं था तो सोचा क्यों न कुछ बतकही ही हो जाए...।
वैसे फिल्म अच्छी है साथ ही मेरे दिमाग में अभी भी ये सवाल भी है कि क्या वास्तव में हाजी मस्तान ऐसा ही था...?

Friday, July 23, 2010

महंगाई !

लो !
फिर बढ़ा दी गईं कीमतें
अब
बुझ जाएगी
मजदूर की सुलगती बीड़ी
या फिर
बुझ जाएगा खुद....

Friday, July 16, 2010

उसे शौक है
गीली मिट्टी के घरौंदे बनाने का
सजा सजा कर रखता जा रहा है
जहां का तहां
निश्चिंत है न जाने क्यूं
अरे
कोई बताओ उस पागल को
कि
सरकार बदलने वाली है।

Sunday, July 4, 2010

लो आया बरसात का मौसम

लो आया बरसात का मौसम
रूमानी जज़्बात का मौसम।
दिलवालों के साथ का मौसम
अंगड़ाई की रात का मौसम।।

मद्धम मद्धम बूंदा बांदी
प्रेम रंग में भीगी वादी
दो दिल नजदीक आ रहें
ये शीरी फ़रहाद का मौसम।
लो आया बरसात का मौसम।।

दूर हुई सबकी नासाज़ी
शुरु दिलों की सौदेबाज़ी
उसका ले लो अपना दे दो
फिर देखो क्या ख़ास है मौसम।
लो आया बरसात का मौसम।।

तन भीगा है मन भी भीगा
संग संग सारा यौवन भीगा
और अगर मनमीत साथ हो
फिर तो लल्लनटाप है मौसम।
लो आया बरसात का मौसम।।
लो आया बरसात का मौसम।।

Friday, June 11, 2010

दुनिया में अगर आए हैं तो जीना ही पड़ेगा .....

दुनिया में अगर आए हैं... तो जीना ही पड़ेगा
है जिंदगी अगर गम... तो उसे पीना ही पड़ेगा

Sunday, May 30, 2010

ईशीईईईई बहुत तीखा है......

मस्त चटपटा कचालू खालो भाई

मुह जल जाये तो पैसे देना.... नहीं तो मत देना



Friday, May 14, 2010

जिंदगी के सफ़र में गुजर जाते हैं जो मुकाम ....

जिंदगी के सफ़र में गुजर जाते हैं जो मुकाम ....
वो फिर नहीं आते ...... फिर नहीं आते

Saturday, May 8, 2010

न्यूड नेचर....



ये तस्वीर मैंने महाबलेश्वर की वादियों में खींची है।

Thursday, April 29, 2010

बूढ़ा घर.....



गर्मी की तपन से निजात दिलाते थे ये मकान,
तर हो जाता था कलेजा......
लेकिन समय के साथ लोग बदलते गये
छोड़ते गये अपने गांव को
भूलते गये गीली मिट्टी की खुशबू
शहर में फ्लैट के अंदर कैद हो गये वो लोग
जिनके गांवों के घरों कच्ची मिट्टी वाले आंगन थे
और आंगन के बीच तुलसी की बिरवा
सब बदल गया , ढह गया मिट्टी का वो मकान
किसी जिम्मेदार बुजुर्ग की तरह.
गांव गया था , कुछ ऐसे ही मकान गिरे मिले
और कुछ पक्की ईंटो में कैद।
गांव से मैं भी शहरवाला बन गया था
हाथ में डिजिटल कैमरा था और
कैद कर ली ये तस्वीर।

Saturday, April 24, 2010

रेत वाला जंगल



ये तस्वीर मुंबई के पास एक बीच से उतारी है

Saturday, April 17, 2010

खुजलीबाज और उंगलीबाज



खुजलीबाज और उंगलीबाज
कई दिनों से कुछ लिखने की फिराक में हूं,लेकिन मेरी लिखने की अभिलाषाओं पर दो तरह के लोग मिलकर ऐसा तुषारापात करते हैं कि भावनाओं की फसल का अंकुर कागज़ पर उतरने के पहले ही मटियामेट हो जाता है...ये दोनो सुकून और शांति के दुश्मन हैं... दोनों की नज़र हमेशा ऐसे महानुभावों पर रहती है जो जिंदगी की भागमभाग से अलग होकर कुछ पल चैन से रहना चाहते हैं...इनमें से एक का नाम है खुजलीबाज...। खुजलीबाज एक ऐसा प्राणी है जो हर दफ्तर कार्यालय में पाया जाता है..इतना ही नहीं, राह चलते सड़क पर, स्टेशन पर , या फिर पिक्चर हॉल में भी ऐसे प्राणियों की प्रजाति बड़ी आसानी से मिल जाती है...। खुजलीबाज जब कभी भी फ्री होता है, न जाने क्यों प्राकृतिक रुप से उसकी तशरीफ में खुजली होने लगती है...खुजली भी ऐसी जिसका कोई जोड़ नहीं, कोई तोड़ नहीं..इनकी खुजलाहट के आगे बीटेक्स, और इचगार्ड जैसी दवाइयों को भी पसीना आ जाता है...इस खुजलाहट को वो अपने परम मित्र, बड़े विचित्र माननीय उंगलीबाज से शेयर करता है, उंगलीबाज की पहचान उसकी उंगली है,उसकी उंगली में सलमान के “दस के दम” से कहीं ज़्यादा दम होता है...इन दोनो ने मिलकर इतना चरस किया है कि मेरे साथ साथ पूरा देश त्राहिमाम कर रहा है...इन दोनों के सामने कोई इंसान अपने मन मुताबिक काम नहीं कर सकता...उसके खुद के काम में अड़ंगा लगाकर ये ऐसा कार्यभार दिलाते हैं मानों देश की धरती से सारा सोना एक ही दिन में निकलवा लेंगे..।
सिर्फ देश ही नहीं विदेश की राजनीति में भी इन दोनो का अच्छा खासा दखल है...और इन दोनों ने अपने अपने गुरु भी बना रखे हैं..जितने भी खुजलीबाज हैं उनके गुरु आदरणीय शशी थरुर जी हैं,जिनकी खुजली ने देश के सारे राजनीतिज्ञों की खाज में चार चांद लगा रखा है...वहीं उंगलीबाजों को मैदान में डटे रहने की हिदायत उंगलीमास्टर अमरसिंह से मिलती है...दुनिया के समस्त उंगलीबाज इन्हें पिता तुल्य मानते हैं...अपनी उंगली की ताकत ये समय समय पर दिखाते रहते हैं...।
खैर...कई दिनों की मशक्कत के बाद आखिरकार मैं कुछ लिखने में सफल हो गया,हालांकि आज भी ये खुजलीबाज और उंगलीबाज राह में रोड़े अटका रहे थे लेकिन इन दोनों के प्रकोप से अंतत: मैं बच गया....।
भले ही मैं बच गया लेकिन आप लोगों को हिदायत दे रहा हूं ज़रा बच के रहना इन दोंनों से...।

Sunday, April 11, 2010

ये जहाँ है कहाँ !


क्या सच में- कभी कैथवास जी की फोटोग्राफ में गरीब लड़की को देखती बच्ची की आँखों में झलकती मासूमियत बरक़रार रह पाएगी, क्या सच में कभी गरीब-अमीर की दूरी कम हो पाएगी ,क्या सच में कभी गरीब आदिवासियों को उनकी जमीन वापस मिल पाएगी और वो नक्सल नही एक आम भारतीय कहलायेंगे , क्या सच में कभी कोई ऐसी पिच बन पाएगी जिसकी लम्बाई ११ गज हिंद में तो ११ गज पाक में होगी , क्या सच में कभी सफेदपोशों की सफेदी सूरज की रौशनी में तो नकाबपोशों की कालिख अमावस्या की कालिमा में गुम हो पाएगी, क्या सच में कभी लालफीताशाही मिट जाएगी, क्या सच में कभी हर बेरोजगार के हाथ में मेहनत की कमाई आ पाएगी, क्या सच में कभी चोरी हत्या बलात्कार जैसी घटनाएँ रुक जायेगी.
क्या सच में कभी कोई ऐसी दुनिया बस पाएगी???????????
शायद बस पाएगी............................ तभी तो ये परिंदा हमसे कह रहा है ...................




Sunday, February 28, 2010

बुरा न मानो होली है...

होली आई यार
पड़ेगी पिचकारी की मार
कि गोरिया हो जा तू तैयार
जोगीरा सारारारा...
नशीली सी है फगुन बयार
जोबन पे पड़ेगी रंग की धार
मगन हैं भौजी आज हमार
जोगीरा सारारारा...
लाल लाल टेसु से गाल
गाल पे गहरा लाल गुलाल
मत मलना मेरे लाल
जोगीरा सारारारा...
ई तो एकदम कट्टा माल
उसपे हिरनी जैसी चाल
हो न जाए बवाल
जोगीरा सारारारा...
एक तो ई गोरिया का जोबन दूजी चढ़ गई भंग!
आज तो बौराया है जोगीरा देख देख सब दंग!!
बुरा न मानो होली है...
होली की ढेर सारी शुभकामनाएं

Friday, January 15, 2010

Tuesday, January 5, 2010

पुरकैफ जी नहीं रहे

साथियों बड़े दुःख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि अब पुरकैफ जी हमारे बीच नहीं रहे ! हालांकि राजेश त्रिपाठी 'पुरकैफ' के राजेश त्रिपाठी अभी मौजूद हैं और स्टार न्यूज़ मुंबई में मजे कि नौकरी कर रहे हैं लेकिन पुरकैफ जी कि बात ही कुछ और थी ! पुरकैफ यानी कि खिलंदड़ मिज़ाज का वोह शख्स जो एक नंबर का शातिर गेमबाज है , लाखैरों (लाला, लोमड़ी, देबू , विक्की) का लाखैरा है , खटिकाना टोला की शायरी गाने वाला शायर है, सड़क छाप लौंडों का सरगना है , अजीबों-गरीब कपड़े पहेनने का मास्टर है, नयी-नयी पत्र-पत्रिकाओं को चीथड़ा कर ख़ुशी महसूस करने वाला कोलाज़र है !
लेकिन शायद पुरकैफ जी इन सारी उपाधियों का बोझ एक साथ ज्यादा दिन तक उठा न सके या कह लें शहर की चकाचौंध और दिखावटी दुनिया के फेर में पड़ कर राजेश ने अल्लढ़ 'पुरकैफ' को मरने पर मजबूर कर दिया!हाय रे! पुरकैफ जी नहीं रहे!खैर जैसे हर आत्मा नया शरीर धारण कर लेती है वैसे ही राजेश त्रिपाठी का शरीर छोड़ने के बाद पुरकैफ की आत्मा भी नया शरीर धारण कर ही लेगी ! बस गम इस बात का है की राजेश ने पुरकैफ को वोह शरीर छोड़ने पर मजबूर कर दिया जहाँ वो पैदा हुआ ,पला-बढ़ा और पुरकैफ बनने तक का सफ़र तय किया !हाल ही में पुरकैफ जी के अवसान पर पुराने मित्रों ने एक शोक सभा का आयोजन किया जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं.............................
अरे पुरकैफ भाई नहीं रहे यार ..................................बढ़िया आदमी थे यार !रेत पर नाम लिखने से क्या............. वाह-वाह, वाह -वाह .......क्या बात है गुरु .........................लगे रहो पांडे.............................. क्या तुरंता दागा है !
पांडे-- ओए ओए ओए ओए ओए............. अरे रेत पर....................रेत पर नाम(पुरकैफ) लिखने से क्या फायदा..............एक लहर आएगी कुछ बचेगा नहीं ...........रेत पर ............नाम लिखने से क्या फायदा !
लाला-- अबे पांडे चिंता मत करो बे ......................एक पुरकैफ चला गया तो क्या हुआ .................साला मैं पुरकैफ की फक्ट्री लगवा दूंगा ...............................रोज एक करोड़ पुरकैफ पैदा करूँगा ................चिंता मत करो बे पांडे , तुम बस तुरंत सुनते रहो बस !
पांडे-- रेत पर .............................
लाला-- अबे साले कभी कापी -कलम भी पकड़बो कि रेते पे जिंदगी भर नाम लिखबो !
लोमड़ी -- हा-हा-हा-हा-हा-हे हे हे हे हे --हुहुहुहुहुहू ...............
देबू-- अब मैं सुनाता हूँ .........अर्ज है, मुलाहिजा फरमाइयेगा ........मेरी रजब कि बरकत न चली जाय ........दो रोज से घर में कोई मेहमान नहीं है .....हर दर पे झुके सर ये मेरी शान नहीं है !
सभी लोग -- क्या बात है --क्या बात है
दादा-- अबे यार इसीलिए तो पुरकैफ भाई नहीं चल बसे ! अब राजेशवा के घर में बैठकबाजी तो होती नहीं होगी तो मेहमान (हम लोगों जैसे ) कहाँ से आयें ! वैसे पुरकैफ भाई लिखते साही थे गुरु .........
दद्दू-- क्या ख़ाक अच्छा लिखते थे !.....दुई-दुई लाईन चुरा के अपनी कविता बना लिए ससुर , खुद एक्को लाईन लिखे होंगे आज तक !
शोक सभा धीरे -धीरे दारु पार्टी में तब्दील होती जा रही थी ! पुरकैफ भाई नहीं रहे का स्वर मद्धम पड़ता जा रहा था , शायद इसलिए कि पुरकैफ की आत्मा आज भी यहाँ जिन्दा है !
पांडे चालू हैं -------रेत पर.......ओहो ...रेत पर
वाह पांडे वाह ....लगे रहो......लगे रहो गुरु