शहर की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है? जब यही जीना है दोस्तों तो फ़िर मरना क्या है? पहली बारिश में ट्रेन लेट होने की फ़िक्र है भूल गये भीगते हुए टहलना क्या है? सीरियल्स् के किर्दारों का सारा हाल है मालूम पर माँ का हाल पूछ्ने की फ़ुर्सत कहाँ है? अब रेत पे नंगे पाँव टहलते क्यूं नहीं? 108 हैं चैनल् फ़िर दिल बहलते क्यूं नहीं? इन्टरनैट से दुनिया के तो टच में हैं, लेकिन पडोस में कौन रहता है जानते तक नहीं. मोबाइल, लैन्डलाइन सब की भरमार है, लेकिन जिग्ररी दोस्त तक पहुँचे ऐसे तार कहाँ हैं? कब डूबते हुए सुरज को देखा त, याद है? कब जाना था शाम का गुज़रना क्या है? तो दोस्तों शहर की इस दौड़ में दौड़् के करना क्या है जब् यही जीना है तो फ़िर मरना क्या है....
Tuesday, September 23, 2008
Tuesday, September 16, 2008
रोटी का धर्म...
जो भीख माँग कर रोटी-रोज़ी चलाते हैं वे धर्मों के बँटवारों को नहीं मानते. उनके लिए मंदिर के भगवान, मस्जिद के रहमान या मालेगाँव के बड़ा कब्रिस्तान में कब्रों के निशान...सब बराबर होते हैं.राजनीति भिखारियों की इस धर्मनिर्पेक्षता की विशेषता से परिचित होती है इसीलिए कभी उनके माथे पर तिलक लगाकर रामसेवक बना दिया जाता है. कभी उनके सर पर टोपी रखकर, अल्ला हो अकबर का नारा लगवाया जाता है और कभी राजनीतिक शक्ति के प्रदर्शन के लिए उन्हें गाँव खेड़ों से बुला लिया जाता है.जिधर भी रोटी बुलाती है, ग़रीबी उधर चली जाती है. ग़रीबी की दुनिया खाते-पीते लोगों की दुनिया की तरह सीमाओं और सरहदों में नहीं बँटती. इसकी दुनिया रोटी से शुरू होती है और रोटी पर ही समाप्त होती है. वह ख़ुदा को मूरत या कुदरत के रूप में नहीं सोचती.इस ग़रीबी के लिए आसमान और ज़मीन दो बड़ी रोटियों के समान हैं जिनमें उसकी अपनी रोटी भी छुपी होती है, जिसको पाने के लिए कभी वह भजन गाती है, कभी कलमा दोहराती है और कभी जीसस की प्रतिमा के आगे सर झुकाती
Monday, September 8, 2008
भरी जवानी मै तीर्थ यात्रा
कभी ऐसा सोचा नही था कि भरी जवानी में तीर्थ यात्रा करनी पड़ेगी ... भला हो अमर उजाला वालों का देहरादून से हरिद्वार लाकर पटक दिया.....अब शायद येही दिन बचे थे कि धर्म नगरी में कि रातें करवट लेकर, 'शाम गंगा किनारे और दिन सडको कि ख़ाक छानकर बीतेगा .....
पत्थर की मूर्ति
पत्थर की मूर्ति पूजनीय है
इसलिए नही कि उसमे देवत्व है
बल्कि इसलिए कि उसने तराशे जाने का दर्द सहा है
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