लो !
फिर बढ़ा दी गईं कीमतें
अब
बुझ जाएगी
मजदूर की सुलगती बीड़ी
या फिर
बुझ जाएगा खुद....
Friday, July 23, 2010
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इलाहाबाद शहर का अपना अलग अंदाज, अलग मिजाज़ है...इस शहर के बाशिंदो के लिए बैठकी करना टाइम पास नहीं बल्कि उनकी ज़िंदगी का हिस्सा है...इस बैठकी में चाय का साथ हो तो क्या कहने...फिर आइये चायखाने चलते हैं...इन बैठकियों में खालिस बकैती भी होती है और विचारों की नई धाराएं भी बहती हैं...साथ ही समकालीन समाज के सरोकारों और विकारों पर सार्थक बहस भी होती है...आपका भी स्वागत है इस बैठकी में...आइये गरमा-गरम चाय के साथ कुछ बतकही हो जाए...
5 comments:
बहुत ख़ूब लिखा है अजीत
ग़म की दुनिया में ग़रीब के लिए बीढ़ी का नशा ही सहारा होता है
लेकिन शायद मंहगाई की मार ग़रीब की बीढ़ी पर भी पड़ जाये......
एक ख़बर देखी थी कुछ दिनों पहले कि लोग अपने ख़ून को जलाकर उसकी महक से नशा करते हैं
तो शायद अब उनके पास यही चारा बाकी रह जाये
इस तरह तो बुझ ही जायेगा न.....
वैसे बहुत ख़ूबसूरत लिखा है, गहरी सोच है.....
बहुत सुंदर भाव युक्त कविता
बहुत ख़ूबसूरत लिखा है, गहरी सोच है..
बहुत सुंदर...ख़ूबसूरत लिखा है
saiya khub hi kamat hain...
mahangai dayan khay jaat hai...
हां दोस्त...अब
बुझ जाएगी
मजदूर की सुलगती बीड़ी
और बुझ जाएगा
खुद मजदूर भी...
और मजदूर ही क्यों हर उस आदमी के घर का चिराग बुझेगा जो रोज रोटी का इंतजाम करता है...सार्थक कविता।
क्या फर्क पड़ता है अगर बुझ जाए मजदूर का नन्हा चिराग।
इन नेताओं को तो अपनी जेब भरने से मतलब है बस। अच्छी कविता।
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