Wednesday, November 14, 2012

A post Of Rickshaw Wala_____The other side of the fence: Why I became a Rickshaw-walla

The other side of the fence: Why I became a Rickshaw-walla: I have realised that, The perspective generally doesn’t change from what you see, hear or read. It changes dramatically - sometimes in ...

The other side of the fence: Rickshey-waley Dulhaniya le jayenge?

The other side of the fence: Rickshey-waley Dulhaniya le jayenge?: While you might accuse me of Plagiarism because this story appears to be a rip-off straight from Bollywood (who rips off Bollywood stories ...

Sunday, April 29, 2012

maine usme sirf khushiyan dhoondi,
usne sirf मुझमे गलतियाँ..
jis baat se meri usne pyaar किया,
wohi aaj बन gayi meri kamiyan...

Saturday, April 7, 2012

घुसा जुनून जो शहर में,


वोह कुछ मंदिरों के थे, कुछ मस्जिदों के थे,


वोह था तो एक बच्चा मगर,


उसकी आँखों में ख्वाब, परियों की जगह चंद रोटियों के थे..

Thursday, April 5, 2012

उम्मीद तो, जगी है लेकिन,




दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर अन्ना



5 अप्रैल 2011 भारतीय इतिहास की कुछ उसी तरह की अहम तारीख है जैसे कि 15 अगस्त 1947 या फिर 26 जनवरी 1950। आजादी या गणतंत्र की तारीख से 5 अप्रैल 2011 की तारीख थोड़ा अलग मायने की है, अलग महत्व की है। आजादी और गणतंत्र की तारीखें ऐसी तारीखें हैं जिस दिन देश को अपनी आजादी और अपने गणतंत्र के होने का अहसास मिला। और, वो अहसास हमारा गर्व बना। क्योंकि, 15 अगस्त 1947 के बाद कम से कम सीधे तौर पर किसी विदेशी का हम पर शासन नहीं रहा और 26 जनवरी 1950 के बाद हमने खुद के बनाए संविधान के लिहाज से एक देश के तौर पर खुद को चलाना सीखा। 5 अप्रैल 2011 का भी महत्व अगर देखा जाए तो, इन दोनों ही तारीखों से कुछ कम नहीं है। लेकिन, 5 अप्रैल 2011 की तारीख अलग इस मायने में है कि इस दिन जो, उम्मीद की किरण दिखी थी वो, अब तक अहसास में नहीं बदल पाई है।







रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार मुक्त भारत की उम्मीद में जमे लोग



5 अप्रैल 2011 को, जो उम्मीद की किरण थी वो, थी भ्रष्टाचार मुक्त भारत की। 5 अप्रैल 2011 को जंतर-मंतर पर किशन बाबूराव उर्फ अन्ना हजारे जब अनशन पर बैठे तो, अंदाजा ही नहीं था कि इस नए गांधी ने भारत की बेहद कमजोर नस पर इतने सलीके से हाथ धर दिया है। नब्ज पकड़ में आई तो, भ्रष्टाचार की बीमारी से पीड़ित हर भारतीय प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर इस डॉक्टर के दवा के परचे की लाइन में खड़ा हो गया। लेकिन, भ्रष्टाचार की बीमारी दूर करने का दावा करने वाले डॉक्टर अन्ना हजारे की मुश्किल ये थी कि खुद के लिए भ्रष्टाचार की बीमारी का पक्का इलाज चाहने वाले हिंदुस्तानी दूसरे हिंदुस्तानियों के लिए खुद ही भ्रष्टाचार की बीमारी बढ़ाने का हर संभव प्रयास कर रहा था। देश में भ्रष्टाचार की बीमारी से लड़ते दिख रहे अकेले इस सीनियर सर्जन के साथ कुछ जूनियर सर्जनों की टीम भी बीमार भ्रष्ट भारतीयों के लिए उम्मीद की किरण दिखी। देश जागा। भ्रष्टाचार की बीमारी में बेसुधी की नींद ही कुछ ऐसी गहरी आई थी।



विकी पीडिया पर अन्ना हजारे का पृष्ठ बताता है कि वो, भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ने वाले महारथी हैं। पद्मश्री और पद्म भूषण जैसे प्रतिष्ठित भारतीय नागरिक सम्मान पा चुके इस शख्स की ढेरों उपलब्धियां भी विकीपीडिया के इस पेज पर मिलेंगी। लेकिन, 5 अप्रैल 2012 को सवाल वहीं का वहीं खड़ा है कि क्या 5 अप्रैल 2011 भारतीय इतिहास में 15 अगस्त 1947 या फिर 26 जनवरी 1950 जैसी निर्णायक तारीख बन पाएगी। कुछ अतिभ्रष्टाचारियों को छोड़कर, पूरे देश की तरह हम भी उम्मीद से हैं। क्योंकि, थोड़े बहुत भ्रष्टाचारी तो हम सब हैं। लेकिन, न्यूनतम भ्रष्टाचारी होने के कारण हम जैसे लोग रिपोर्टिंग करते एक्टिविस्ट की भूमिका में आ गए थे। ये अन्ना के आंदोलन की ताकत थी।







इलाहाबाद विकास प्राधिकरण में रजिस्ट्री के लिए मारामारी



लेकिन, बीते वित्तीय वर्ष के आखिरी दिन इत्तेफाक से हम इलाहाबाद विकास प्राधिकरण के दफ्तर में काफी समय रहे। और, जमीन की रजिस्ट्री की पीड़ादायी प्रक्रिया और अन्ना को चुनौती देते बाबुओं की फौज से जूझते आम आदमी को देखकर मन में फिर सवाल खड़ा हुआ कि 5 अप्रैल 2011 आखिर निर्णायक तारीख कैसे बन पाएगी। यही वो, आम आदमी था जो, जंतर-मंतर, रामलीला मैदान से लेकर अपने शहर के नुक्कड़, चौराहे तक अन्ना के साथ गला फाड़कर, मैं अन्ना हूं की टोपी लगाकर खड़ा था। वही आम आदमी अपनी खरीदी जमीन की रजिस्ट्री के लिए बाबुओं के सामने रिरिया रहा था। बाबुओं की कृपादृष्टि भर से वो, प्रसन्ना हो रहा था। आजादी के 65 साल बाद भी रजिस्ट्री का वही घटिया तरीका। वही स्टैंप पेपर पर अंगूठे के निशान, हस्ताक्षर से लेकर एक बेहद घटिया पेपर की रसीद से रजिस्ट्री हो जाने की संतुष्टि।







प्राधिकरण में रिश्वत के खिलाफ लगा सूचनापट्ट



31 मार्च 2011 को ADA यानी इलाहाबाद विकास प्राधिकरण की लिफ्ट तेजी से का सातवें, आठवें तल पर ही जा रही थी। सातवें तल पर रजिस्ट्री के डीलिंग क्लर्क के पावन दर्शन होने थे। और, आठवें तल पर एक 25-30 लोगों की क्षमता वाले कमरे में एक साथ 100-150 लोग कुछ छूट की उम्मीद में आखिरी रजिस्ट्री कराने के लिए धंसे पड़े थे। हालांकि, सातवें तल पर डीलिंग क्लर्क के कक्ष के बाहर ही एक बड़ा बोर्ड लगा था जो, साफ तौर पर इलाहाबाद विकास प्राधिकरण के अन्नामय होने की बात सार्वजनिक तौर पर कह रहा था। उस सार्वजनिक सूचना पट्ट पर साफ लिखा था कि प्राधिकरण के किसी भी कार्य के लिए कोई भी अधिकारी, कर्मचारी सुविधा शुल्क/ रिश्वत न लेने के लिए वचनबद्ध है। लेकिन, इसी बोर्ड पर अन्ना के साथ खड़े अन्ना के घोर विरोधी आम आदमी, कर्मचारी में से किसी ने सुविधा शुल्क/ रिश्वत न लेने के लिए वचनबद्धता को लेने की वचनबद्धता में बदलने की कोशिश की थी। वैसे, कोई इस सूचना पट्ट पर नजर भी नहीं डालता क्योंकि, इससे तो, बनी बात बिगड़ जाएगी। और, अंदर पहुंचते ही प्राधिकरण के अधिकारियों, कर्मचारियों की ईमानदारी का नमूना मिलना शुरू हो ही जाता है।



चढ़ावा डीलिंग क्लर्क से शुरू होकर आखिरी रसीद काटने वाले चपरासी बाबू तक चढ़ रहा था। कोई सरकारी खजाने में जमा होने वाली जायज राशि भर देता तो, रजिस्ट्री के लिए बैठी बाबुओं की फौज में से किसी की करकराती, डराती आवाज सुनाई दे जाती। खर्चवा देबा कि अइसेन रजिस्ट्री होइ जाई। लाखन क जमीन लेब्या औ दुई चार सौ देए म आफत होइ जाथ। किसी तरह जिसकी रजिस्ट्री हो जा रही थी। वो, जैसे अपने सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल के दर्शन जैसा अहसास पा रहा था। ऐसे ही अहसास अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार मुक्त भारत के अहसास की सबसे बड़ी बाधा हैं। 5 अप्रैल 2011 ने एक उम्मीद तो, जगाई है लेकिन, ये उम्मीद भ्रष्टाचार मुक्त भारत के संपूर्ण या फिर बहुमत के अहसास में कब बदलेगी ये बता पाना तो, शायद ही किसी के वश का होगा।

Wednesday, March 28, 2012

इस संसार में सबसे कठिन है प्यार करना

इस संसार में सबसे कठिन है प्यार करना,
अथाह दुःख,
कभी न खत्महोने वाले रेगिस्तान की तरह,
जाती, धर्म, धन और एक पूरी सभ्यता,
प्रेम के विरोध में,
अपना ही साहस कमज़ोर,
अपने विरुद्ध एक हंसी,
लगातार बहता एक खारा दरिया
जो धकेल देता है
एक मरुस्थल में....

Tuesday, March 20, 2012

कुछ शब्द कभी-कभी खो जाते हैं

कुछ शब्द कभी-कभी खो जाते हैं,
रिश्तों की तरह,
shayad हमारी आँखों का धुंधलापन hai,
या फिर वोह मिलना ही नहीं चाहते,
गलतियाँ कभी-कभी हमारी होती हैं,
कभी-कभी हम गलतियों के हो जाते हैं,
कुछ भी हो, लेकिन खो गए शब्द और खो गए रिश्ते,
तकलीफ ही देते हैं,
न हम किसी से अपनी बातें कह सकते हैं और
न ही रिश्तों की गोद में सर रखकर सुस्ता सकते हैं,
कुछ शब्द कभी-कभी खो जाते हैं,
रिश्तों की तरह.......

Wednesday, February 29, 2012

बसंत--- एक

हवा के झोंके पर इठलाता
बरगद का जर्द पत्ता
गिर जाता है जमीन पर
बसंत में उसे बटोर लेना
ताकि कम न पड़ें
लगन के मौसम में
भोज के पत्तल।

बसंत ----- दो

जब बसंत गदराता है
सरसों के हरे खेतों पर
पीलापन खिल जाता है
सरसों के फूलों की
मीठी सुगंध लगती है मादक
उसमें नहीं होती नाक में
धंस जाने वाली झरार गंध

फिर भी
वासंती सरसों की सुगंध
नहीं बनती परफ्यूम!

बसंत -------तीन


अब बसंत निशाचर की तरह
गुपचुप चांदनी रातों में
महुए के दरख्तों पर नहीं आता
और मुलायम मोती की मानिंद
जमीन पर पसर
सुगंध नहीं बिखेरता।


अब बसंत अमराइयों में नहीं
उतरता दबे पांव
पल्लव के कोमल कोर से
अचानक हुलक नहीं पड़ता
खटतूरस स्वाद नहीं जगाता।

टेसू बन दहकता नहीं
अमलताश की शाखों पर
वासंती पहन इतराता भी कहां है
गीतों में भी अब मुश्किल
उतरता है बिंदास बसंत ॥

वित्तमंत्री की चमड़े की
अटैची में बंद पन्नों में
रोशनाई की स्याह इबारतें बन
आता है बसंत अब

अब मुआ बसंत
आता है आमबजट की तरह
दरख्तों से वसूली की योजना बनाता
महसूल के नए-नए मद तैयार करता
जिसे सुन जर्द हो जाते हैं पत्ते और
फाख्ता हो जाते हैं होश की तरह

नई कोंपलों पर छापते हुए
चिंता की लकीरें चला जाता है बसंत
आखिरकार
क्यों न जाए चुपचाप बसंत
क्योंकि आमबजट की तरह
उसमें कहां होता है सपना
बेहतर आबोहवा का आश्वासन।
 

अब तो बस आता है बसंत
बिना किसी ऐलान के
सबकी आंखों में धूल झोंकता
ग्लोबल वार्मिंग का एहसास कराता
दबे पांव चला जाता है चोर की मानिंद।

अपना-अपना बसंत


फागुन में अल्हड़ हवा
खेलती है सरसों के फूलों से
फूलों को बनाती है फली
फली को दानों से भरपूर
दानों में भर देता है कड़वाहट
जिसे पसंद करते हैं लोग

सरसों का रासरंग देख
बौराने लगते हैं आम
धरती पर पथार बन जाता है महुआ
सरसों की तरह तृप्त नहीं होता वह
नहीं उतर पाता उसके मन से नशा
अर्क बन हवा में उड़ने
और फिर पानी बनने तक ।

ठीक वैसे ही जैसे बौराता हुआ आम
नशा उतरने तक भर जाता है रस से
पा जाता है निजात उस कड़वी खटाई से
जो बसंत ने थी कभी जगाई।

और बस अंत


चैती गुलाबों में दहकता बसंत
तपिश पीकर बिखेरता है सुगंध
तब मुंह चिढ़ाता है तपते सूरज को
सोचिए,
कैसे खुशबू मात दे देती है
चिलचिलाते एहसास को।

बसंत--- एक

हवा के झोंके पर इठलाता
बरगद का जर्द पत्ता
गिर जाता है जमीन पर
बसंत में उसे बटोर लेना
ताकि कम न पड़ें
लगन के मौसम में

भोज के पत्तल।

Wednesday, February 22, 2012

प्यास कामरेड


जो नफरत है तुम्हारे दिल में

दरअसल प्यास है वह

कामरेड अपनी समझ सीधी करो
 जैसे मार्क्स ने किया था द्वंद्ववाद को सीधा

 समझो इस बात को

भूख से ज्यादा खतरनाक है प्यास
शोषण, गैर बराबरी, भूख
पूंजीवाद, साम्यवाद सबकी
जड़ है सिर्फ और सिर्फ प्यास  

और
भूख से ज्यादा तेजी से
आदमी को मारती है प्यास।

 


मेरे गांव में



मेरे गांव की युवती
पैंतीस पर पहुंची तो
उसके भीतर से रिस गयी औरत
और
फेसबुक वाली वह औरत
चालीस के बाद भी
करती है चैट
इतराती है किशोरों के बीच


क्यों होता है ऐसा
मिट्टी खोदने में बन जाती है मिट्टी
साग खोंटने में गल जाती है साग बन
कपड़े निचोड़ने में उसके भीतर से
निचुड़ जाती है उसके भीतर से
बूंद-बूंद औरत
मेरे गांव में ही ऐसा क्यों होता है?

ऐसा क्यों होता है कि
मेरे गांव की हर औरत की
देह के साथ घिस जाती है आत्मा भी
गीता ने जिसे कहा
 नैनं दहति पावक:
वही आत्मा जलती है
भुनती है, कुढ़ती है
मेरे गांव में
देह के फुटहे बरतन से
तेजी से क्यों रिस जाती है औरत
मोनोपाज से बहुत-बहुत पहले ही।





































Tuesday, February 14, 2012

दृष्टिकोण


कभी नाक की सीध में
एक उंगली खड़ी कर
आंखे मार-मार देखिए
नजर आएगी
उसकी बदलती स्थिति

आगे बढ़ती है रेलगाड़ी
पेड़ दिखते हैं पीछे भागते हुए

उमस के इंतजार में पड़े
अंखुआ बनने को बेताब बीजों को
कोसते मत रहिए

उनको आत्मसात कीजिए
गलिए, पचिए खाद बनिए
थोड़ा जलिए धूप बनिए
भाफ बनिए और बरसिए
सहिए थोड़ी तपिश, उमस

अचानक एक दिन
भीतर ही भीतर आपके
प्रेम के बीज कल्ले फेंकने लगेंगे।

थोेड़ा नजरिया भर बदलिए
प्यार में क्या नहीं हो सकता।

Wednesday, January 11, 2012

और रिश्तें धुंआ हुए...

दिन पूरा बीत गया,
जीवन की आपाधापी में,
हमने रिश्तों की शाखों को,
झाझोरा भी,
कुछ बातें थीं,
सूखे पत्ते बनकर टूट गयी,
कुछ यादें थीं,
आंसूं बनकर टपक गयी,
हमने साड़ी रात,
उन पत्तो की आग को तापा भी,
कुछ बूंदे थीं,
खारे पानी की,
जो उस आग में जलकर धुंआ हुई,
अभी कुछ पत्ते बचे हैं,
शाखों पर,
इस उम्मीद से की,
अभी कुछ हरियाली की तासीर बची है उन पर....

Sunday, January 1, 2012

नए साल के नाम...

आज फिर एक पूरा साल बीत गया॥ कुछ सुख, कुछ दुःख, कुछ खोया, और कुछ पाया। जीवन निरंतर हैचलता रहता है। कोई रिश्ता टूटता है, कोई जुड़ जाता है, पर एक टीस ज़रूर रह जाती है। पाने की खुशियों की बीच कभ-कभी खोने का गम ज्यादा भरी होता है... फिर भी जीवन अनंत है, चलता रहता है। इस बेहतर गुजरे हुए साल के लिए ढेर सारी बधाई,


और आने वाले पल, माह, दिन के लिए


ढेरों शुभकामनाएं..............