Thursday, September 29, 2011

सो क्या जाने पीर परी

अगर दीमक की जगह बाल्मीकि लिख दें तो कोई आपत्ति ? संस्कृत में दीमक का पर्याय बाल्मीकि है. आदि कवि का यही नाम है। उनका असली नाम रत्नाकर था। रत्नाकर डाकू था। अपने प्रियजन के लिए राहजनी करता था। ऋषि जा रहे थे। लूटने आया। उन्होंने पूछा इस पाप का भागी कौन होगा? रत्नाकर संशय में पड़ गया। उपनिषदों में कहा गया है- संशयेंन विजानाति, संशयात्मा विनश्यति। आधुनिक पश्चिमी दर्शन भी संदेह की बात करता है। देकार्त का चिंतन इसी पर आधारित है। बाल्मीकि ने संदेह की जाँच की। पाया कोई पाप का सहभागी नहीं होगा। ऋषियों को पेड़ में बांध कर गया था। उनको मुक्त किया। उनसे मारा - मारा मंत्र मिला , जिसका प्रतिफल राम था। पर इतने से संतोष नहीं किया। तपस्या की कसौटी पर कसा। घोर तप किया। दीमक खाते रहे। परवाह नहीं की। बदन दीमकों ने छाप लिया, हिला नहीं। केवल आंखे दिखा रही थीं। तब रत्नाकर बाल्मीकि हुए। क्रोंच पछी का शिकार देख उसका दिल रोया। वियोगी का यह गान अदि कविता है। वियोगी होगा पहला कवि ........जैसे जुमले देने वाले परिजनों से दिल टूटने, घोर तप के कष्ट को क्या जाने। रत्नाकर से बाल्मीकि बनाने का जोखिम और पीड़ा को क्या जानें। जिसने पीड़ा सही नहीं वह पछी का वियोग क्या जाने? बाल्मीकि ने राम को ऋषियों से सीखा नहीं, साधना से जाना तब लिखा। केवल रामायण (राम का वनवास भर) लिखा। जंगल में ऋषि कष्ट में थे। राम ने खुद दुःख सहा, जो साथ थे उन्होंने दुःख सहा। पर तप का माहौल बनाया। विभीषण को सच कहने पर रावण ने लात मारकर घर से निकल दिया। वह राम के पास गया पर द्रोही कहलाया। कोई अपने बेटे का नाम विभीषण नहीं रखता। सुनते हैं जीवन संघर्ष गद्य में होता है। आज के घोर कठिन समय में गद्य की जगह पद्य लिखा जा रहा है? गद्य को बाल्मीकि ने काव्य बनाया। याद रखने के लिए शायद। यह सब बिना दीमक के हवाले हुए सीख़ पते। कालिदास में अपनी ड़ाल काटने की कुव्वत थी। हे कवि तुम जड़ काट कौन सी कविता लिख रहे हो। सोचो जाके पांव ना फटी विवाई....

आज जन्मदिन है मेरा...

ज़िन्दगी के सफ़र के दो पड़ाव तो पहले ही पूरे हो गए थे। आज आधी ज़िन्दगी से महज एक कदम दूर रह गया हूँ। अब वह बचपन की अटखेलियाँ, खेल सब कहीं खो से गए हैं। स्कूल के दिनों की मस्तियाँ, दोस्तों की बातें सब सिर्फ याद करने तक ही सीमित रह गए हैं। या यूँ कहें की अब शायद उन्हें याद करने में भी यादों के लिए समाये निकालना पड़ता है। खैर शायद ज़िन्दगी ऐसे ही चलती है। लोग आतें हैं, रिश्तें बनते हैं और एक दिन सिर्फ हम होते हैं.... सबके बीच रहते हुए भी अकेले और तनहा... फिर भी सबके बीच खुशियाँ ढून्ढ ही लेते हैं...