Thursday, April 25, 2013


कुछ यूं हुए तक्सीम हम

बड़े भाई ने भरा फार्म
छोटे भाई ने भी भरा फार्म
पिता रह गए अकेले
उन्होंने लिखा माता का नाम
जमा कर आए फार्म
कुछ यूं भरा गया राशन कार्ड
कुछ यू हो गए तक्सीम हम
पहले रसोई गैस के चक्कर में
फिर बांट दिए गए हम
कोटे पर मिलने वाले
गेहूं, चावल, चीनी
केसोसिन तेल के फेर में।
प्रकृति की देन के तिजारत में
तक्सीम होते गए रिश्ते
बंटते गए बाप-बेटे, पति-पत्नी, मां-पिता
बिना जाने समझे होते गए तक्सीम सब।


बिल्लियां, बच्चियां, मोमबत्तियां

दुनिया बनी तब बिल्ली बनी थी
दुनिया बनी तब सड़क नहीं थी
दुनिया बनी तो आदमी बने
पहिया बना, गाडि़यां बनीं, सड़कें बनी
आदमी ने लिखना-पढ़ना सीखा
संविधान रचा गया, जिसमें लिखा
बिल्लियां नहीं काट सकतीं रास्ता
अनपढ़, अनजान, अभागी बिल्लियां
रास्ता काट मारी जाती हैं ट्रकों से कुचल

दिल्ली से दौलताबाद तक कुचलती
अबोध बच्चियों ने भी नहीं पढ़ा संविधान
जिसे बदलने के वास्ते पिघल रही मोमबत्तियां। 

Wednesday, April 24, 2013

शुक्रिया ..


मित्रों ...
बीती  इक्कीस तारीख को हिंदी ब्लोगिंग के सफ़र के दस साल पूरे हो गए ....२ १ अप्रैल २ ० ० ३ को आलोक ने "नौ दो ग्यारह " नाम से पहला हिंदी ब्लॉग शुरू किया था ....२ ० दिसंबर २ ० ० ७ को शुरू हुए आपके ब्लॉग चाय बैठकी ने भी लंबा सफ़र तय कर लिया है ...चाय बैठकी के उन तमाम बैठकबाजों का मैं तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने इस लम्बे सफ़र को रास्ते की तमाम दुश्वारियों के बावजूद जारी रखा या यूँ कहें की चाय ठंडी नहीं होने दी ...
बहुत जल्द चाय बैठकी नए कलेवर और नए तेवर के साथ आपसे रूबरू होगी ... सभी बैठक बाजों से गुजारिश है की कोई भी  पोस्ट पढने के बाद अपने विचार जरूर साझा करें ....एक बार फिर आप सब को शुक्रिया ...|

Monday, April 22, 2013

बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय.



   हमेशा की तरह आज का अखबार भी अपनी पिछली सुर्ख़ियों से आगे निकलने की होड़ करता मिला, जैसे ध्रितराष्ट्र को हर बीते कल से ज्यादा भयावह खबरें देने को शापित संजय. देश के हर कोने से आती सोच और कल्पना से परे अपराधों के ख़बरें.
बहुत बेबस महसूस करता हूँ अपने-आप को, क्यूंकि जहाँ से मैं देख रहा हूँ, वहां से यह स्थिति सुधरने वाली नहीं दिखती, पिछले साल भर में नौकरी के दौरान मैंने यह निष्कर्ष निकाला है (यहाँ मुझे वर्त्तमान और आने वाली पीढ़ी को देखने और समझने का मौका मिला ).
नेता, नौकरशाह, पुलिस, माफिया, गुंन्डे, मवाली, मुहल्लेवाला, नुक्कड़ वाला, पडोसी, हम-तुम, ये -वो वगैरह-वगैरह ये सब सिर्फ उदहारण मात्र है, हमने पूरे तालाब में ही भंग घोल दी है,
ये सब इंसान ही हैं और समाज के किसी न किसी संभ्रांत परिवार से संबध रखते हैं, आज के दौर में सामाजिक ताने-बाने को बुनने वाली ये परिवार नाम वाली इकाई ही भ्रस्ट हो चुकी हैं, इसकी शुरुआत पिछली पीढ़ी ने कई दशक पहले की थी जिसका परिणाम आज के पतित नागरिकों के रूप में सामने आ रहा है.
हमने अपने बच्चों को स्वस्थ और अच्छे संस्कार देने के बजाय किसी भी तरह धनी बनने का लक्ष्य दिया, पोर्नोग्राफी और अश्लील सामग्री से लबालब, फिल्मों, पत्रिकाओं और इन्टरनेट जैसा सूचना संसार दिया, और इससे पोषित और पल्लवित हुआ आज अब अपना प्रभाव दिखाने लगा है, अभी तो महज़ शुरुआत है, वर्त्तमान परिस्थितियों में भविष्य की कल्पना बहुत डरावनी है, भ्रस्ट परिवारों से भ्रस्ट संस्कारों और लक्ष्यों के साथ आने वाली ये फसल बढती ही जा रही है.
एक परिजन का यह कथन काबिले गौर हैं - मेरा बेटा डाकू बने या आईएस नम्बर एक का बने.....
मतलब साफ़ है- बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय.