गर्मी की तपन से निजात दिलाते थे ये मकान,
तर हो जाता था कलेजा......
लेकिन समय के साथ लोग बदलते गये
छोड़ते गये अपने गांव को
भूलते गये गीली मिट्टी की खुशबू
शहर में फ्लैट के अंदर कैद हो गये वो लोग
जिनके गांवों के घरों कच्ची मिट्टी वाले आंगन थे
और आंगन के बीच तुलसी की बिरवा
सब बदल गया , ढह गया मिट्टी का वो मकान
किसी जिम्मेदार बुजुर्ग की तरह.
गांव गया था , कुछ ऐसे ही मकान गिरे मिले
और कुछ पक्की ईंटो में कैद।
गांव से मैं भी शहरवाला बन गया था
हाथ में डिजिटल कैमरा था और
कैद कर ली ये तस्वीर।
5 comments:
zamaane ki tez raftar ki poori jhalak dikhi bahur sundar...
पुरकैफ साहब आप ने तो नये जमाने की कोख में पल रहे संर्कीण सोच वाले लोगो को एक सीख दी है। इस कविता को पढ़ कर मुझे एक शेर याद आता है कि पुरानी इमारत को संभाल कर कौन रखता है इन प्यारे पंक्षी को अब पानी कौन देता है वो तो आप है जो जिंदा कर दिया याद बूढ़े घर को नही तो कौन पुरानी विरासत को याद रखता है।
रजनीश त्रिपाठी
jab बूढ़े घर को नही तो कौन पुरानी विरासत को याद रखता है।
जीवन की विडंबनाओ को दर्शाती के उत्तम रचना...
jivan ki kadbi sachhai......
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