Friday, December 30, 2011
और लोकपाल लटक गया
लोकपाल संसद में लटक गया। सड़क से लेकर संसद तक लडाई। लोकसभा से लेकर राज्यसभा तक बहस, या यूं कहें पछ से लेकर विपक्च तक ने बिल गिराने के लिए काम किया। लोकसभा में सरकार बहुमत में नहीं, भाजपा समर्थन में फिर भी बिल से किनारा। कम सी कम छोटे दलों ने सीना चौड़ा कर स्वयं को चोर तो बताया। और अब सरकार के नैतिक पतन की बात कर रहे हैं॥ राजनीति में राजनेताओ और लोकतंत्र में लोक का दुराभाव हुआ॥ जिसका खामियाजा आने वाले समाये में सिर्फ आम लोगों को भुगतना पडेगा। चुनाव नज़दीक है फैसला, लोगों के हाथ में है। अब चुके तो अपने साथ बच्चों का बी भविष्य खो देंगे॥ सोचने और उठाने का समय वर्ना एक बार फिर मुर्दों की तरह कब्र में लेटे होंगे और कोई कुत्ता मूत कर जा रहा होगा.....
Monday, December 26, 2011
तुम्हारी यादें...
भूली बिसरी चंद उम्मीदें, अफ़साने भी याद आये
याद आये तुम और तुम्हारे साथ ज़माने याद आये
याद आये तुम और तुम्हारे साथ ज़माने याद आये
Saturday, December 17, 2011
ग्लोबल जमाने में लोकल की चिंता बढ़ी
‘प्रयाग धरती की जांघ है।’
मेले में मूल की खोज की प्यास लेकर आने वालों की कमी नहीं है। इस बात की गवाही
बिक्री का चलन दे रहा है, जो दूसरे शहरों से थोड़ा अलग है। धर्मवीर भारती की रचना
यह बात पुराण कहते हैं। राजकीय बालिका इंटर कालेज में लगे
किताबों का मेले में इस बात की गवाही देने वाली एक किताब आई थी। हिंदुस्तानी एकेडमी
से प्रकाशित प्रयाग प्रदीप नामक यह किताब हाथोहाथ बिक गई। यह बानगी भर है। उस ललक
की जो ग्लोबल गांव के दौर में अपनी आबोहवा चीन्हना चाहती है। अपनी जड़ की तलाश में
लगी है।
‘गुनाहो का
देवता’ सदाबहार
रचना है। कंपनी बाग में प्रेम और मैकफरसन लेक पर आध्यात्म की अनुभूति कराने वाले इस
उपन्यास की की 32 प्रतियां दो दिनों में बिक गईं।
देश और काल की जिज्ञासा का अंत यहीं नहीं है। बुनकरों के दर्द के तानेबाने पर
रचा अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास झीनी-झीनी बीनी चदरिया की पृष्ठभूमि बनारस है
लेकिन उसके तलबगार यहां भी आ रहे हैं। डा. काशीनाथ सिंह की कुख्तात किताब हरिवंश राय बच्चन की बेस्टसेल ‘मधुशाला’
की मांग हमेशा रहती है लेकिन बच्चन की आत्मकथा के ‘दशद्वार से सोपान’ तक सभी सेट किसी मेले में नहीं
बिकते। मुंशी प्रेमचंद हर मेले के सिरमौर होते हैं लेकिन अबकी श्रीलाल शुक्ल केराग
दरबारी की धूम है। राजकमल प्रकाशन केप्रशासनिक अधिकारी मुकेश कुमार के मुताबिक
दो-तीन महीनों में इसकी हजार से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। मेले में
रात्रिकालीन ‘राग
दरबारी’ सुबह से ही
बजने लग रहा है। शुक्ल जी की ‘विश्रामपुर का संत’ इसके साथ ही निकल रही है। निराला का राग-विराग और
अमरकांत की किताबें भी बिक रही हैं।‘काशी का
अस्सी’ और रुद्र
काशिकेय की बनारसी मस्ती की ‘बहती गंगा’
(जिसे कहानी, उपन्यास जैसे किसी भी खांचे में रखना मुश्किल है)
में भी लोग डुबकी लगाने को बेताब हैं। बेचन शर्मा उग्र की तरह ‘अपनी खबर’ लेना चाहते हैं। गंगोजमुनी
संगम की नगरी में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का हिंदी-उर्दू कोष और धर्मशास्त्र का
इतिहास के तलबगार भी खूब हैं।
वर्तमान पीड़ी की रुचि को पकड़ने वाले चेतन भगत नई किताब ‘रिवोलूशन-2020- लव, करप्शन,
एंबीशन’ में लोकल
हुए हैं। महानगरों से निकलकर खांटी बनारसी माटी में किरदार गढ़े हैं। उन्होंने आज
के सबसे चर्चित शब्द करप्शन का इस्तेमाल किया है। पर ऐसा भी नहीं कि सब लोकल ही है।
ग्लोबल गांव के किताबों से बतियाने वालों का फोकस लोकल पर है लेकिन उन्होेंने
ग्लोबल को छोड़ दिया है, ऐसा भी नहीं। नोबल विजेता मारिया वर्गास लोसा की
‘किस्सागो’ के तलबगार भी हैं। वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंस की ‘ब्रीफ हिस्ट्री आफ
टाइम’ का गूढ़
ज्ञान किशोर और युवाओं को लुभा रहा है। यूनाइटेड कालेज आफ इंजीनियरिंग की श्रद्धा
कामरिकर ने बताया कि डेन ब्राउन उनको पसंद हैं लेकिन वह मिल्स एंड बून की किताबें
खरीदेंगी। ब्रीफ हिस्ट्री आफ टाइम भी लेना चाहती हैं लेकिन सिर्फ 10 फीसदी छूट मिल
रही है। लिहाजा वह इसे यूनिवर्सिटी रोड से खरीदेंगी, जहां मेले से ज्यादा छूट मिलती
है। बातचीत के दौरान ही इस किताब को आठवीं के छात्रपार्थ भाटिया ने देखते ही खरीद
लिया।
नोट- िपछले िदनों प्रयाग के जीजीआईसी मैदान में पुस्तक मेला लगा था। यह उसी की रपट है।संयोग से यह कहीं छपी नहीं है। आपके अवलोकन के िलए प्रस्तुत है। |
Sunday, December 11, 2011
पसीने से परिंदे तर-बतर हैं।
फिज़ाएं तल्ख़ से भी तल्ख़-तर हैं॥
ज़माना हो गया सूनामी आए।
मगर कुछ लोग अब तक दर-बदर हैं॥
हवा मत दे तू इस चिंगारी को प्यारे।
तुझे मालूम नहीं पास में तेरा भी घर है॥
तुम्हारा घर जले या लोग जलें।
भला किसको यहां किसकी ख़बर है॥
बड़े कमजोर दरवाजे हैं घर के।
किसी दिन छोड़ दे न साथ ये मुझको भी डर है॥
है उसके हाथ में मीठी कटारी।
मैं जिसको सोचता हूं हमसफर है॥
अजित "अप्पू"
फिज़ाएं तल्ख़ से भी तल्ख़-तर हैं॥
ज़माना हो गया सूनामी आए।
मगर कुछ लोग अब तक दर-बदर हैं॥
हवा मत दे तू इस चिंगारी को प्यारे।
तुझे मालूम नहीं पास में तेरा भी घर है॥
तुम्हारा घर जले या लोग जलें।
भला किसको यहां किसकी ख़बर है॥
बड़े कमजोर दरवाजे हैं घर के।
किसी दिन छोड़ दे न साथ ये मुझको भी डर है॥
है उसके हाथ में मीठी कटारी।
मैं जिसको सोचता हूं हमसफर है॥
अजित "अप्पू"
Friday, December 9, 2011
समंदर में अदाकारी न होती।
तो लहरे इस कदर प्यारी न होती॥
जराइम से मेरा घर बच न पाता।
अगर घर में निगहदारी न होती॥
मैं तेरी बात बिलकुल मान लेता।
अगर ये बात सरकारी न होती॥
हमारे गांव के ठाकुर भी नौकरी करते।
अगर उनकी जमींदारी न होती॥
तरक्की कर गयीं होतीं ये बस्ती बांद्रा की।
अगर बस्ती में रंगदारी न होती।
ये मूमकिन था कि लंका बच भी जाती।
विभीषण की जो गद्दारी न होती॥
जराइम-अपराध
निगहदारी-चौकसी
अजित "अप्पू"
तो लहरे इस कदर प्यारी न होती॥
जराइम से मेरा घर बच न पाता।
अगर घर में निगहदारी न होती॥
मैं तेरी बात बिलकुल मान लेता।
अगर ये बात सरकारी न होती॥
हमारे गांव के ठाकुर भी नौकरी करते।
अगर उनकी जमींदारी न होती॥
तरक्की कर गयीं होतीं ये बस्ती बांद्रा की।
अगर बस्ती में रंगदारी न होती।
ये मूमकिन था कि लंका बच भी जाती।
विभीषण की जो गद्दारी न होती॥
जराइम-अपराध
निगहदारी-चौकसी
अजित "अप्पू"
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