Wednesday, January 16, 2008

कितने जज्बाती हैं हम....

वैसे तो ये शहर (इलाहाबाद) बसा है तीन नदियों (कथित तौर पर) के तट पर लेकिन मिजाज़ में जज्बाती इस कदर कि हर पल ज्वार भाटा है बिलकुल समुंदर की तर्ज पर। रेत फांकता ये शहर अपनी रौ में हो तो सियासत को भी सबक सिखाने में बाज नहीं आता। किताबों और बड़े बुजुर्गों की जुबां अभी तक स्वतंत्रता आंदोलन के ढेरों किस्से सहेजे हुए है, पर शहर में बिताए चौदह सालों की यादों के जखीरे में छात्र कर्फ्यू की यादें बेहद ताजा हैं, सचमुच किस कदर एक दिन के लिए ही सही पर पूरा प्रशासन छात्रों के जिम्मे था। इस सब के बावजूद शहर की सबसे बड़ी खासियत है वो ये कि जज्बात की रौ में भी ये कभी अपने रिश्ते नहीं खोता। मुद्दों पर ताप चढ़े ताव के सामने एक पल के लिए दोस्ती भी दांव पर लग जाती है लेकिन शाम ढलते सूरज के संगम में डुबकी लगाते ही गुस्से का गुबार छन्न से ठंढा हो जाता है। कहीं से और कैसे भी एक बार यहां जो घुसा वो जब बाहर निकलता है तो अपना पिछला सारा कुछ भूल कर बस इलाहाबादी होने की थाती लेकर यानी काफी कुछ आइडिया के ऐड जैसा जहां किसी भी कुनबे का शख्स उसके नंबर से जाना जाता है। पाई-पाई जोड़ता ये शहर भावुक भी इस कदर की बन-मख्खन और एक चाय पर सुबह से शाम बिताने वाले शख्स को भी एक भूखे पागल से नाता जोड़ने में देर नहीं लगती, और उस पागल के हिस्से आती है आधी दिगी सिगरेट एक कट चाय, बिस्कुट मूड अच्छा हुआ तो साथ में ब्रेड पकौड़ा भी....यानी झुर्री जैसों (पागल शख्स) की पूरी ऐय्याशी। इस शहर में बैठकबाजी के ऐसे जाने कितने अड्डे हैं लेकिन मिजाज सभी का एक सा।......फिर भैया गफलत कैसी....जिंदाबाद हो चाय बैठकी।

1 comment:

अनिल रघुराज said...

कभी राजीव गांधी ने कोलकाता को मरता हुआ शहर कहा था. लेकिन इलाहाबाद तो सालों से कोमा में चला गया है. पूरा शहर सुन्न पड़ा है. बस लोगों की यादों में नास्टैल्जिया बनकर जिंदा है।