Tuesday, January 22, 2008

बांधो न नाव इस ठांव बंधु....

महाकवि निराला की इन पंक्तियों की संवेदनशीलता तभी महसूस हो पाती है जब नाव निराला के इंगित ठौर पर न बांधे जाने की सलाह के बावजूद बांधी जा चुकी होती है। हालांकि वो कविता में उस खतरे से आगाह करते ही दिखाई देते हैं ‘बांधो न नाव इस ठांव बंधु, पूछेगा सारा गांव बंधु’ लेकिन इस खतरे को मोल लेने का मजा छोड़ना आसान नहीं है।
कविता के मूल भाव से थोड़ा इतर जाएं तो ये ठांव बन जाता है शहर इलाहाबाद जहां देश के किसी कोने से आया व्यक्ति 'इलाहाबादी' लफ़्ज की समष्टि ही जीना चाहता है।इसके लिए चाहे कितनी ही जहालत झेलनी पड़े। खटास की लार से मुंह भर जाए तो भी थूकने के बजाए गटक जाना ही बेहतर समझा जाता है।
हालिया दिनों में नया ज्ञानोदय पत्रिका में छपे संपादकीय लेख को लेकर एक इलाहाबादी वरिष्ठ साहित्यकार (प्रकाशन भी है) ने संपादक पर बेलाग निशाना साधा। सोचा था प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे लेख में खूब मसाला मिलेगा पर ऐसा हो नही पाया वजह वही कि वो भी ठहरे गंगा किनारे के वो भी तेलियरगंज की गंगा। संपादक जी को बखूब आता था कब चुप्पी साधनी है और कब हल्ला मचाना।
हालांकि उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र में काफी पहले हुई एक बहुचर्चित फोटोग्राफी चित्र प्रदर्शनी के दौरान काटे गए बवाल के बाद शहर में ही हुई एक गोष्ठी में संपादक जी ने एक वरिष्ठ खांटी इलाहाबादी पत्रकार छायाकार प्रदीप सौरभ जी को चेताया था कि 'इस शहर (इलाहाबाद) में स्पीड ब्रेकर बहुत हैं, गाड़ी ज्यादा रफ्तार से दौड़ाने पर पटखनी तय है' , पर संपादक जी को इलाहाबाद छोड़े लंबा अर्सा बीत चुका था। अब दिल्ली में थे सो संपादकीय में जोखिम ले बैठे। इलाहाबादी पुरोधा के लिए तो मानो छींका टूटा, फुफकारता जवाबी लेख तैयार था। पर संपादक जी खतरा भांप चुके थे सो दो महीने की चुप्पी से पूरे बखेड़े की हवा निकाल गए।
वैसे तो मामला काफी पुराना है लेकिन लाश मा सांस फूकै बदे बेताब बैठकबाजन के लिए का पुराना का नया सुट्टा के साथ कट होए फिर तो आजू-बाजू धत्त-धत्त और दूसरे दिन ताज़ा मामला तैयार। दुई सुट्टा दिगै भरै का है अब चलत हई....जिंदाबाद।

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