Tuesday, April 8, 2008

इलाहाबाद! एक गहरे बिछोह का नाता है तुझसे

इलाहाबाद आया तो दस साल की उम्र से ही घर-परिवार और दोस्तों से बार-बार बिछुड़ते रहने का इतना दंश झेल चुका था कि पत्थर बन गया था। इतना रो चुका था कि आंखों से आंसू निकलते ही नहीं थे। पलकों से लुढ़कने के पहले ही आंसू गरम तवे पर पड़े पानी की तरह छन्न से सूख जाते थे। आंसुओं को बनानेवाली ग्रंथियां भी सुन्न पड़ गई सी लगती थीं। लेकिन जब आखिरी बार इलाहाबाद छोड़ा तो कंपनी बाग, साइंस फैकल्टी के म्योर टॉवर, अपने अमरनाथ झा हॉस्टल, आनंद भवन के सामने बनी अपनी लाइब्रेरी, सीनेट हॉल, प्रयाग स्टेशन और फाफामऊ के पुल को पार करते हुए हंहक-हंहक कर रोया था। शुक्रिया इलाहाबाद, तूने मुझे फिर से रोना सिखा दिया, एक संज्ञाशून्य होते इंसान में नई संवेदना भर दी तूने।

इस बात का भी शुक्रिया इलाहाबाद कि सात साल के प्रवास में तूने इतने वेगवान मंथन से गुजारा कि अमृत या विष भी जो अंदर था, निकलकर बाहर आ गया। मैंने यहीं जाना कि देश और देशभक्ति का असली मतलब क्या होता है। जीवन का क्या मतलब होता है, इतिहास क्या होता है, शासन क्या होता है, सरकार क्या होती है। मैं आज़ादी की लड़ाई के संदर्भ-प्रसंग से यहीं परिचित हुआ। साहित्य को जाना, समाज को समझा। इलाहाबाद मैं तेरा ऋणी हूं कि आज जो कुछ भी नितांत मेरा है, वह तेरा ही दिया हुआ है। मैं उन सभी लोगों का ऋणी हूं जिनके ज़रिए देश-दुनिया और समाज का ज्ञान मुझ पर पहुंचा। वो न होते तो एकदम ठन-ठन गोपाल की तरह मैं कहीं अफसर बना कुढ़ रहा होता। शुक्रिया इलाहाबाद, तूने मुझे जीने का मकसद सिखाया।

इस बात का भी शुक्रिया इलाहाबाद कि तूने ही मुझे किसी लड़की के परिपक्व प्यार से पहला परिचय कराया। दिखाया कि अपने पैरों पर खड़ा होने की 100% काबिलियत रखनेवाली एक मेधावी लड़की भी कैसे अपने जीवनसाथी के चयन जैसे निजी फैसले को भी मां-बाप की इच्छाओं के हवाले छोड़ देती है और फिर पहाड़-सी ज़िंदगी अकेले काटने का अभिशाप खुद अपने ऊपर ओढ़ लेती है। देशप्रेम, सामाजिक उत्तरदायित्व, क्रांति के प्रति समर्पण भाव और निजी प्रेम में किसको वरीयता देनी चाहिए, यह सबक भी इलाहाबाद तूने ही मुझे सिखाया। तू नहीं होता तो इतने कठिन फैसले मैं एक झटके में नहीं कर सकता।

हां, कभी-कभी लगता है कि ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होता क्या होता। लेकिन इसके पीछे भाव बस यही रहता है कि कैसे अपनी और अपने जैसे सैकड़ों नौजवानों की ऊर्जा का और ज्यादा बेहतर इस्तेमाल समाज और देशहित में हो सकता था। कहीं भी, कोई भी पछतावा नहीं है कि मैंने सात साल इलाहाबाद में रहने के दौरान जो किया, वो क्यों किया। इसलिए अगर कुछ लोग कहते हैं कि मैं उस जीवन-खंड को डिनाउंस करता हूं तो मेरे प्यारे इलाहाबाद, तू उनकी बातों को दिल पर मत लेना क्योंकि वे जान-बूझकर झूठ बोल रहे हैं। पंथ की सोच से आच्छादित, जड़ों से कटे हुए, आत्मरति के शिकार हैं ये लोग। दया के पात्र हैं। नॉस्टैल्जिया में जीना इनकी मजबूरी है क्योंकि आज इनका व्यक्ति इतने ठहराव का शिकार हो चुका है कि कुछ भी साफ-साफ नहीं दिखता। इतने जड़ हो चुके हैं कि जड़ता को तोड़ने की इनकी सहज मानवीय इच्छा तक जड़ हो गई है।

इलाहाबाद छोड़ने के कई साल बाद वहां गया तो बस जहां-तहां भटकता रहा। कहां जाता? कहीं कोई और कुछ भी तो अपना नहीं बचा था। साइंस फैकल्टी में जाता तो कहां जाता। कोई क्लास तो लगनी नहीं थी अपनी। गुरुजनों से मिलना बेमतलब था क्योंकि इतनी कम क्लासेज़ में गया था कि कोई पहचानता ही नहीं। म्योर नाम के औपनिवेशिक तमगे पर गर्व करनेवाले अमरनाथ झा हॉस्टल में जाता तो किसके पास? हां, उसके दरवाज़े तक ज़रूर गया था। लेकिन न कोई देखनेवाला था, न पहचानने वाला। कर्नलगंज, कटरा, यूनिवर्सिटी रोड, यूनियन हॉल, सीनेट हॉल, वीमेंस हॉस्टल, ताराचंद, बैंक रोड, लक्ष्मी चौराहा, ममफोर्डगंज, अल्लापुर, सोहबतियाबाग... पूरे दिन हर उस जगह से गुजरता रहा जहां से तनिक-भी यादें जुड़ी थीं।

फिर शाम को ट्रेन पकड़कर अपने गांव की ओर रवाना हो गया। लेकिन आज भी लगता है कि मेरा कोई अंश अब भी कहीं इलाहाबाद में छूटा हुआ है। वह अब भी वहीं कहीं भटकता है। डेलीगेसी में, हॉस्टलो में, सड़कों पर चौराहों पर। नशे के आगोश में डूबते लड़कों में, कंप्टीशन की तैयारी करते मृग मरीचिका की सैर करते छात्रों में, बेरोज़गारी की जिल्लत में डूबे बूढ़े होते नौजवानों में। न जाने किस अधूरे मकसद को पूरा करने की तलाश है उसे। इसी तरह और भी टुकड़े हैं मेरे। कोई टुकड़ा नैनीताल में है तो कोई फैज़ाबाद में और कोई गोरखपुर में। लेकिन वर्तमान से इतना घिरा रहता हूं कि बाकी टुकड़ों का होश तभी आता है, जब कोई बताता है, जतलाता है, याद दिलाता है।

2 comments:

Sandeep Singh said...

अबकी बार जाने से पहले बैठकबाजों की कान में आगमन की फूंक भर डाल दें, फिर कटिंग का ऑडर देकर बस तैयार होने तक का इंतजार करें। वापसी में संगम की रेत और गुलमुहर से सजा वो रेतीला रास्ता तो स्मृतियों में होगा ही...यादों के बस्ते में बहुतेरे लेखों का मसाला भी जमा हो चुका होगा।

Swarup said...

इलाहाबाद को दूर से देखिये तो बड़ा सुंदर शहर है ...पर यहाँ रह भर जाइए ,हो गया बवाल ...नामाकूलतीरे नीमकश की तरह जिगर में ऐसा उतर जाता है की ..न इस पार ,न उस पार ..फिर तो ये खलिश आपके वजूद का हिस्सा हो जाती है ..शहर में रहते हुए भले हम इसे लाख गरियाएं ..पर आप जहाँ भी जायेंगे बेताल की तरह ये आपके साथ रहेगा ही ..कभी आपको कोफ्त देगा तो कभी इतनी शिद्दत से याद आयेगा की आँखें डबडबा जायेंगी ...कुछ साल पहले लखनऊ रहने के दौरान इलाहाबाद आने पर कुछ ऐसे ही महसूस होता था ..आज अनिल जी ने फिर वो यादें ताजा कर दीं ...
आपकी पोस्ट पढ़ कर आज मुनव्वर का शेर बड़ी शिद्दत से याद आ रहा है ॥
कहीं भी छोड़ के अपनी जमीं नही जाते ...
हमें बुलाती है दुनिया हमीं नहीं जाते ....