Wednesday, April 9, 2008

देश में लोकतंत्र की सबसे मजबूत पाठशाला है इलाहाबाद विश्वविद्यालय

( इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पहला अंतराष्ट्रीय पुरातन छात्र सम्मेलन 16-17-18 फरवरी को हुआ। किसी वजह से इसमें मैं जा नहीं पाया। इस पुरातन छात्र सम्मेलन की पत्रिका के लिए मुझसे भी विश्वविद्यालय में मेरे विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दिनों के बारे में लेख मांगा गया था। जो, विश्वविद्यालय की पत्रिका में छपा है। मैं यहां वो लेख वैसे का वैसा ही छाप रहा हूं। ये लेख इस बात पर भी मेरे विचार हैं कि पढ़ाई के साथ छात्र राजनीति कितनी सही है। मुझे लगता है कि इलाहाबादी चाय बैठकी के लिए ये प्रासंगिक हो सकता है और बैठकी में बहस भी इस पर हो सकती है।)

पढ़ाई हमेशा अच्छे भविष्य और मजबूत व्यक्तित्व की बुनियाद होती है। और, मैंने जो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई के दौरान पाया कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों का गजब का व्यक्तित्व विकास होता है। मैं आज जो कुछ भी हूं उसका बड़ा योगदान इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे पढ़ाई के 7 साल रहे हैं।

मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कोई भी चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन, पढ़ाई के दौरान छात्रसंघ चुनावों में सक्रिय हिस्सेदारी की वजह से मैं उन्हीं दिनों देश की संसदीय परंपरा से भली-भांति वाकिफ हो गया था। 1993-2000, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उस संक्रमण काल के आखिरी दौर में गिना जा सकता है जिसकी एक दशक पहले शुरुआत हुई थी। उस समय तक सत्र देरी से चल रहे थे। विश्वविद्यालय में पढ़ाई का सत्र तो देरी से चल ही रहा था। छात्रसंघ के चुनाव भी समय पर नहीं हो रहे थे। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (UPPCS) के भी 3-3 पुराने सत्रों के परिणाम एक के बाद एक आ रहे थे। यानी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर आगे की योजना बनाने वाले छात्र-छात्राएं, चुनाव लड़कर-जीतकर आगे संसद-विधानसभा का रुख करने की चाहत रखने वाले छात्रनेता और IAS-PCS बनकर किसी जिले में अपनी काबिलियत दिखाने की हसरत रखने वाले छात्र सभी के लिए ये संक्रमण काल था। उस समय ये बात ज्यादा समझ में नहीं आती थी।

खैर, 1996 के बाद से सत्र धीरे-धीरे फिर पटरी पर आने लगे थे। 1998 में शायद ही कोई सत्र लेट रहा हो। 6 महीने के कार्यवाहक कुलपति प्रोफेसर वी डी गुप्ता और उसके बाद आए कुलपति प्रोफेसर चुन्नीलाल क्षेत्रपाल ने विश्वविद्यालय को पटरी पर लाने के लिए कड़े फैसले लिए। बीस-बीस सालों से छात्रावस के कमरे में कब्जा जमाए बैठे बूढ़े छात्रों को कमरों से बाहर निकालकर नए छात्रों को मेरिट के आधार पर कमरे मिलने लगे।

एक वाकया जो मुझे याद आ रहा है। विश्वविद्यालय में सत्र की देरी से परेशान छात्रों और छात्रनेताओं का एक वर्ग इस बात के लिए पूरी तरह से मन बना चुका था कि अब किसी भी कीमत पर परीक्षा में देरी नहीं होने दी जाएगी। प्रोफेसर चुन्नी लाल क्षेत्रपाल भी इस फैसले पर मजबूत बना चुके थे कि परीक्षा नहीं टाली जाएगी चाहे जो, हो। लेकिन, सस्ती लोकप्रियता के लिए छात्रनेता, छात्रों के एक वर्ग ने कुलपति पर विधि की परीक्षाएं फिर से टालने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। इसके बाद परीक्षा विरोधी और परीक्षा समर्थक खेमों ने विश्वविद्यालय परिसर में रजिस्ट्रार ऑफिस के सामने अगल-बगल ही मंच लगाकर भाषण करना शुरू कर दिया। भाषण का दुखद अंत मारपीट के साथ हुआ लेकिन, परिणाम सुखद ये रहा कि परीक्षा नियत समय पर ही हुई।

खैर, लोक सेवा आयोग चौराहा और यूनिवर्सिटी के सामने से साइंस फैकल्टी तक जाने वाली सड़क पर आए दिन धरना प्रदर्शन आम बात थी। लेकिन, एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा अपील करती थी कि कहीं भी किसी धरना प्रदर्शन में मुझे ये याद नहीं आ रहा है कि कहीं भी छात्रों ने आंदोलन के दौरान आम लोगों को परेशान किया हो। यही वजह है कि इलाहाबाद अकेला शहर होगा जहां, परिवारों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलनों को मदद मिलती रही है।

बूढ़े-बुजुर्ग (कहलाते सब छात्रनेता ही थे) नेता परिसर में छात्रों के हितों का बीड़ा उठाए घूमते थे। लेकिन, मुझे अपने समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेताओं की एक अच्छी बात ये थी कि दुर्गुणों (शराब, सिगरेट, अपराध) का आरोप शायद ही किसी छात्रनेता पर लगा हो। परिसर में एक साथ अगर 10-12 नौजवानों के बीच में कोई एक खद्दरधारी घूम रहा है तो, आसानी से समझ में आ जाता था कि कोई छात्रनेता चल रहा है। और, अगर एक ही उम्र के ढेर सारे लड़के चुहल करते घूम रहे हैं और किसी एक लड़के के लिए बीच-बीच में नारे भी लगा रहे हैं तो, मतलब साफ है अगले चुनाव के लिए एक नया छात्रनेता तैयार हो रहा है।

चुनाव और परीक्षा के सत्र में देरी की वजह से 1995 के चुनाव तक ज्यादा बुजुर्ग हो चुके छात्रनेताओं (35-45 साल) के बीच नए छात्रनेताओं (20-28 साल) की भी पूरी जमात तैयार हो चुकी थी। उस समय ये भी चर्चा शुरू हो गई थी कि छात्रसंघ चुनाव लड़ने की उम्रसीमा अधिकतम 28 साल होनी चाहिए। मुझे याद है गोरखपुर में 25 साल की उम्रसीमा लागू की गई तो, वहां के छात्रसंघ के महामंत्री जो, अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते थे, उम्रसीमा में थोड़ी छूट के लिए इलाहाबाद उच्चन्यायालय में याचिका दाखिल करने आए थे। उनकी उम्र 26 साल हो चुकी थी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के नीचे खड़े होकर वो पान खा रहे थे कि तभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यक्ष का चुनाव लड़ने वाले 2 (40 साल के ऊपर के) बुजुर्ग छात्रनेता वहां आ गए। उनको देखने के बाद गोरखपुर से उम्रसीमा में छूट के लिए आए छात्रनेता ने चुनाव लड़ने का इरादा त्याग दिया और बिना याचिका दाखिल किए ही लौट गए।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में किसी के छात्रनेता बनने की भी शुरुआत बड़े रोचक तरीके से होती थी। पिछले चुनाव मे किसी छात्रनेता के पीछे की सबसे सक्रिय मंडली में से किसी एक को अगला चुनाव लड़ाने की तैयारी हो जाती थी। तर्क ये कि जब हम पुराने छात्रनेता के लिए 100 वोट जुटा सकते हैं तो, अपने साथी के लिए तो, 500 वोट जुटा ही लेंगे। कुछ इसी तरह से हम लोगों की 40-50 लोगों की एक जबरदस्त छात्रों की मंडली (इसमें मेरे जैसे इलाहाबाद में अपने घर में रहने वाले और बाहर के जिले, प्रदेश से आकर छात्रावास या डेलीगेसी में रहने वाले छात्र थे।) ने भी अपने साथ के मनीष शुक्ला को चुनाव लड़ा दिया। मनीष बाद में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बैनर से चुनाव लड़े और फिर बहुत ही कम समय में भारतीय जनता युवा मोर्चा के रास्ते जौनपुर की खुटहन विधानसभा का चुनाव लड़ा। कुछ यही तरीका होता है इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रनेता के चुने जाने का। यानी एकदम लोकतांत्रिक तरीका।

इलाहाबाद को लोकतंत्र की मैं सबसे मजबूत पाठशाला कह रहा हूं तो, इसके पीछे वहां के छात्रों के चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने और अपना नेता चुनकर उसे जिताने तक की बात कर रहा हूं। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के अलावा इलाहाबाद विश्वविद्यालय देश का अकेला विश्वविद्यालय होगा जहां, आमने-सामने छात्र नेताओं के मंच लगते हैं। स्थानीय मुद्दों से ज्यादा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बहस होती है।

विश्वविद्यालय मार्ग पर चुनाव के एक दिन पहले लगने वाले ये मंच नेता की जीत-हार का पैमाना तय करते हैं। छात्रनेता के समर्थन में पुराने-नए छात्रनेता, पूर्व पदाधिकारी आकर भाषण देते हैं और माना जाता था कि जिसका मंच सबसे बाद तक टिका रहता उसका चुनाव जीतना लगभग तय हो जाता था। जैसे किसी लोकसभा चुनाव में नेता के पक्ष में राष्ट्रीय, राज्य के नेताओं की मीटिंग होती है ठीक वैसे इलाहाबाद में दिल्ली, जेएनयू, बीएचयू या प्रदेश के दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्रसंघ पदाधिकारी भी अपने प्रत्याशियों के प्रचार में आते थे।

इलाहाबाद की लोकतंत्र की पाठशाला की एक और अद्भुत बात जो, मैं जोड़ रहा हूं वो, हैं यहां के छात्रसंघ चुनाव में निकलने वाला मशाल जुलूस। मशाल जुलूस विश्वविद्यालय मार्ग पर लगे मंचों से नेताओं का भाषण खत्म होने के बाद शुरू होता था। फिर समर्थ प्रत्याशी अपने चुनाव कार्यालय से बांस की खपची, जला तेल, कपड़ा और मिट्टी से बनी कुप्पी जैसी मशाल लेकर निकलते थे। हर प्रत्याशी के जुलूस के बीच में दो ट्रॉली पर अतिरिक्त जला तेल होता था जो, बुझती मशाल को आखिर तक जलाए रखने में मदद करता था। ये मशाल जुलूस अगली सुबह होने वाली चुनाव की दिशा तो तय करता ही थी। लड़कों के लिए ये महिला छात्रावास में बिना रोक घुसने का एक लाइसेंस भी था। लड़कियों के छात्रावास के दरवाजे खुले होते थे। अपने से तय नियम के मुताबिक, एक-एक जुलूस अंदर जाते थे और लड़कियों की ओर से फेंकी गई फूल-मालाओं के साथ थोड़ा और उत्साह से भरकर वापस आ जाते थे। वैसे, ये परंपरा इलाहाबाद में जसबीर सिंह के एसपी सिटी रहने के समय पहले आरएएफ के घेरे में बंधी फिर टूट गई। वैसे, मैंने उद्दंड से उद्दंड छात्रों को भी कभी इस दौरान लड़कियों के छात्रावास में कोई बद्तमीजी करते नहीं देखा था। लोकतंत्र की एक और बेहतर मिसाल।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चुनाव लड़ने वाले छात्रनेता का चुनाव क्षेत्र एक संसदीय क्षेत्र से भी बड़ा होता है। मेरा घर इलाहाबाद में है। लेकिन, मैंने इलाहाबाद की गलियों को, मोहल्लों को नजदीक से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के चुनावों के दौरान ही देखा। परिसर के मुद्दों के अलावा जाति, क्षेत्र, छात्रावास, डेलीगेसी इन सभी मुद्दों पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेताओं को बैलेंस करके चुनाव जीतना होता था। इलाहाबाद में मेरे समय में दक्षिणपंथी छात्र संगठन और वामपंथी छात्र संगठन दोनों ही काफी सक्रिय रहते थे। वामपंथी छात्र संगठनों की वोटों की मामले स्थिति काफी पतली रहती थी जबकि, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद मेरे समय में बहुत ही मजबूत स्थिति में था। लेकिन, सेमिनार, धरना-प्रदर्शन पर हर तरह के छात्र संगठनों की मौजूदगी परिसर और परिसर के बाहर निरंतर बनी रहती थी। इस सबके बावजूद आज संसदीय चुनावों को बेहतर करने के लिए जिस बात की सबसे ज्यादा वकालत की जा रही है वो, मेरे समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में खुद ही चल रही व्यवस्था का हिस्सा बन गया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बैनर कभी चुनाव नहीं जिता पाता था। मजबूत व्यक्तित्व चुनाव जीतने की पहली शर्त होता था।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मिलने अनुभवों के आधार पर ही मेरा ये मजबूत विश्वास है कि पढ़ाई के दौरान हर लड़के-लड़की को किसी न किसी छात्र संगठन से जरूर जुड़ना चाहिए। भले ही वो राइटिस्ट हो, लेफ्टिस्ट हो या फिर सोशलिस्ट हो। क्योंकि, किसी छात्र संगठन में काम करने से सोचने और किसी बात पर प्रतिक्रिया देने की जो आदत बनती है वो, ताउम्र जिंदगी का अहसास दिलाती रहती है।

छात्रसंघ चुनावों के नोटीफिकेशन के साथ ही परिसर में न्यासी मंडल के आदेश ही काम करते थे। छात्रसंघ चुनाव कब होंगे, कितने दिनों तक प्रचार हो सकेगा। प्रत्याशी के लिए आदर्श आचार संहिता क्या होगी, ये सब तय करना न्यासी मंडल का काम होता था। न्यासी मंडल का अध्यक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त जैसी भूमिका में होता था। प्रोफेसर जी के राय को इस बात का जबरदस्त अनुभव है क्योंकि, 1995 के बाद से वो लगातार इस कुर्सी को संभाले हुए हैं। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री, उपमंत्री और प्रकाशनमंत्री संसद के मंत्रिमंडल जैसे माने जा सकते हैं जिनका सीधा चुनाव होता है और छात्रावास तथा डेलीगेसी से चुने जाने वाले सदस्य विश्वविद्यालय की संसद के संसद सदस्य जैसे होते हैं।

छात्रसंघ चुनावों के दौरान होने वाल भाषणों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के आत्मविश्वास का अंदाजा लगाया जा सकता है। उस समय हर दूसरा वक्ता चुनाव में इस बात का जिक्र जरूर करता था कि जैसे पंजाब में गेहूं की फसल होती है वैसे ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय से IAS, PCS निकलते हैं। इतना ही नहीं ये भी जरूर गिनाया जाता था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने देश को कई प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री, राज्यपाल और एक से बढ़कर एक विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार दिए हैं। लेकिन, इसी गुमान में विश्वविद्यालय में एक जो सबसे खराब बात हुई थी कि ये विश्वविद्यालय बदलते भारत के साथ खुद को बदल नहीं रहा था। नॉसट्रैल्जिया में जी रहा था। लेकिन, हमारे विश्वविद्यालय से निकलते-निकलते विश्वविद्यालय में सुधार की प्रक्रिया का पहला चरण लगभग पूरा हो चुका था।

विश्वविद्यालय में इसके पहले भी पुरातन छात्र सम्मेलन होते रहे हैं। लेकिन, 16 से 18 फरवरी तक ये विश्वविद्यालय का पहला अंतरराष्ट्रीय पुरा छात्र सम्मेलन हुआ है। शायद इस मामले में भी ये पहला होगा कि इस बार कोई बुजुर्ग छात्रसंघ अध्यक्ष, महामंत्री पुरा छात्र सम्मेलन का इस्तेमाल अपने राजनीतिक करियर को दुरुस्त करने के लिए नहीं कर रहे हैं। बल्कि, ये पुरा छात्र सम्मेलन इस विश्वविद्यालय को उन दिनों की याद दिलाएगा जब ये देश में ऑक्सफोर्ड का प्रतिमान विश्वविद्यालय माना जाता था। वैसे ये प्रतिमान मेरे जैसों को तब भी बुरा लगता था, अब भी बुरा लगता है। क्योंकि, मेरा मानना है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वो सारी काबिलियत है जिसके बूते ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज को इस विश्वविद्यालय से उपमा लेनी पड़े। और, ये पुरातन छात्र सम्मेलन इस आंदोलन की शुरुआत हो सकती है।

विश्वविद्यालय के अब के कुलपित प्रोफेसर राजेन हर्षे से मेरी जो एक मुलाकात हुई है और जो उनके बारे में मेरी राय बनी है वो, ये कि प्रोफेसर हर्षे किसी भी तरह सबसे पहले विश्वविद्यालय की माली हालत ठीक करना चाहते हैं। आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। यही वजह है कि विश्वविद्यालय में ढेर सारे नए वोकेशनल कोर्सेज शुरू हो चुके हैं। जो, विश्वविद्यालय के बदलते भारत यानी यंग इंडिया के साथ कदम मिलाने का संकेत दे रहा है। मैं उम्मीद करता हूं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का बंद पड़ा जर्नलिज्म डिपार्टमेंट भी जल्द ही शुरू हो सकेगा।

प्रोफेसर हर्षे से बस मेरा एक अनुरोध है कि वो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ को भारतीय लोकतंत्र की मजबूत पाठशाला बने रहने के लिए भी जरूरी फैसले लें। पढ़ाई में राजनीति का घालमेल नहीं होना चाहिए। लेकिन, दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को चलाने वाले नेता अच्छी पढ़ाई करेंगे और लोकतंत्र के सबक अच्छे से सीखेंगे तभी वो, अच्छे नेता बन सकेंगे। इसके लिए जरूरी पहल इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे परिसरों से ही हो सकती है। और, प्रोफेसर हर्षे जैसे विजनरी कुलपति ही पढ़ाई और राजनीति दोनों में बेहतर तालमेल का फॉर्मूला तलाश सकते हैं।

4 comments:

विनीत कुमार said...

इलाहाबाद कभी गया नहीं लेकिन साहित्यकारों की जुबान से इतना कुछ सुन चुका हूं कि अभ्यस्त हो गया हूं इसकी बड़ाई के पुल बांधने के लिए। लोकतंत्र की बात तो है ही लेकिन थोड़ा और अपडेट हो जाए तो मजा आ जाए।

Abhishek Ojha said...

इलाहबाद विश्वविद्यालय के सुनहरे इतिहास के बारे में मैंने बहुत कुछ सुना और थोड़ाबहुत पढ़ा भी है, पर आजकल भी क्या सबकुछ वैसा ही है? इधर सुनने में तो कुछ और ही आता है, और हासिल जैसी फिल्मों की पृष्ठभूमि भी इसी विश्वविद्यालय में तैयार होती है.

Sandeep Singh said...

बहुत-बहुत बधाई। अनिल रघुराज जी के बाद आपने भी इस पाठशाला में नया अध्याय जो जोड़ा। पूरे चौदह साल इस अवधूत शहर की रेत फांकी लेकिन स्मृतियों में अब-तक बिलकुल तरो-ताज़ा है बेहद सुनहरी झांकी। मृगमारीचिका (प्रशासनिक नौकरी)
के लोभ में कुछ अनैतिक कृत्यों से भी जुड़ गया(चाहे अनचाहे)जिनका जिक्र आपने लेख में कई बार किया है....यानी चौदह साल एक ही छात्रावास पीसीबी (सर प्रमदा चरण बनर्जी)में बीते, कैसे ये तो आपको बखूब पता है। हां चुनाव की झलकियों में एक मनुहारी छवि लेख में छूट गई वो है मसाल जलूस की निराली परंपरा। आखिरी भाषण खत्म होने के बाद रहा-सहा निष्कर्ष भी इस जुलूस के निकलते ही मिट जाता था। या कहें कमोवेस चुनाव परिणाम नज़र आ जाता था।

Batangad said...

@विनीत कुमार
अगली बार कुछ और अपडेट के साथ आऊंगा।
@अभिषेक ओझा
हासिल आखिर थी तो, फिल्म ही। लेकिन, ये भी सही है कि लोकतंत्र में भी भारतीय लोकतंत्र जैसी कुछ विसंगतियां आईं थीं। बुढ़ाते नेताओं के साथ नकारा लड़कों की एक फौज भी विश्वविद्यालय में बच रह जाती थी। जो, बदमाश-लफंगई के सिवा क्या करती।
@संदीप सिंह
आपने बहुत सही बात ध्यान में दिलाई। मैं, फिर से इस लेख में ही मशाल जुलूस वाली कुछेक लाइनें जोड़ रहा हूं।