Monday, April 7, 2008
टीआरपी का गेमप्लान
नवजवान जब कॉलेज की पढ़ाई करके नौकरी की तलाश में निकलता है तो उसे क्या पता कि बाजार नाम की चीज भी आ गयी है। वह दिन रात कड़ी मेहनत करता है...एक सिफ्ट में नहीं बल्कि दो-दो सिफ्ट में काम करता है...वह आशावान रहता है कि आज नहीं तो कल नौकरी हाथ लगेगी। लेकिन जब तक उसे बाजार की समझ की तिकड़म का पता चलता है तब तक काफी समय निकला चुका होता है और वह टीआरपी के चक्कर में फंस कर हाय तौबा करने लगता है। मैं बात कर रहा हूं मीडिया की जो इन दिनों टीआरपी के गेमप्लान में फंसता जा रहा है और खबरों की जगह प्रोग्राम को जगह दिया जाने लगा है...चैनेल के अंदर लगातार मीटिंग करने का शिलशिला जारी रहता है और नवजवानों की भीड़ लगातार चैनेल के बाहर बढ़ती जाती है। अगर उनमें से कोई एक सफल हो जाता है तो उसके चेहरे पर खुशियां छा जाती है और अपने आप को एक अलग ग्रुप में समझने लगता है। आज नवजवानों भीड़ लगातार बढ़ती जा रही है उनमें खबरों की ललक कम, मगर पैसा और सोहरत कमाने की ललक ज्यादा रहती है और वह अपने को उसी भीड़ में शामिल कर रहे है जिनकी गुणवत्ता लगातार काम होती जा रही है। अगर चैनेलों के टीआरपी चार्ट पर एक नजर डाले तो हमें पता चल जाएगा कि पिछले तीन से चार सालों में चैनेलों का स्तर क्या रहा है? टीआरपी के चक्कर से हम तभी सामना कर पाएंगे जब हम एक सही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से काम करेंगे। और एक बात रोजगार का अवसर तभी बढ़ेगा जब हमें शिक्षा का अवसर समान रूप से मिलेगा और हर एक नवजवान अपने-अपने क्षेत्र में रोजगार को बढ़ाने के लिए ईमानदारी से प्रयास करेगा।
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