जिंदगी के सफ़र में गुजर जाते हैं जो मुकाम ....
वो फिर नहीं आते ...... फिर नहीं आते
इलाहाबाद शहर का अपना अलग अंदाज, अलग मिजाज़ है...इस शहर के बाशिंदो के लिए बैठकी करना टाइम पास नहीं बल्कि उनकी ज़िंदगी का हिस्सा है...इस बैठकी में चाय का साथ हो तो क्या कहने...फिर आइये चायखाने चलते हैं...इन बैठकियों में खालिस बकैती भी होती है और विचारों की नई धाराएं भी बहती हैं...साथ ही समकालीन समाज के सरोकारों और विकारों पर सार्थक बहस भी होती है...आपका भी स्वागत है इस बैठकी में...आइये गरमा-गरम चाय के साथ कुछ बतकही हो जाए...
10 comments:
आह....
अद्भुत....
आलोक साहिल
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
बहुत खूब, लाजबाब !
दादा, मस्त फोटो है। यार ऐसे ही फोटो खींच के प्रोत्साहन देते रहो मजा आ जायेगा।
चूड़ियाँ और सिन्दूर ...सब सुहाग के प्रतीक ,पर क्या कोई खुद में पूर्ण है ..?अंततः तो सिन्दूर जिसके सिर चढ़ेगा या चूड़ियाँ जिसके हाथ सजेंगी वही सत्य है .क्या हमारे जीवन की कहानी भी कुछ ऐसी ही नहीं है ?शरीर के संजाल में उलझे हम उसी को सत्य माने बैठे हैं .रोज उसके लिए चूड़ियों का इंतजाम या किसी को सिन्दूर चढ़ा कर उसके सम्पूर्ण अस्तित्व का मालिक बन बैठने की झूठी आत्मश्लाघा के साथ जीते .हाथों से उतरी चूड़ियों या बिखरे सिन्दूर के सत्य से परिचित कराती "सत्या " की तस्वीर छायांकन के भौतिक मानदंडों पर तो खरी उतरती ही है ,उसके आत्मिक पक्ष को भी सामने लाती है ,और इसी को ले कर तो जन्मती है कला...!व्याकुल रहता है कलाकार !
"सत्या" को बधाई ,उन्हों ने सिद्ध कर दिया की वे कलम के ही नहीं 'कैमरे' के भी माहिर हैं..
अति सुन्दर...
इस प्रस्तुति के लिए बधाई.
जिन्दगी के सच से साक्षात्कार कराती इस तस्वीर में वो दर्शन छिपा है, जिसे सिर्फ दादा का दिल समक्ष सकता है...
दादा को कोटी-कोटी नमन, श्रद्धा-सुमन अर्पण
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