Thursday, April 10, 2008
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इलाहाबाद शहर का अपना अलग अंदाज, अलग मिजाज़ है...इस शहर के बाशिंदो के लिए बैठकी करना टाइम पास नहीं बल्कि उनकी ज़िंदगी का हिस्सा है...इस बैठकी में चाय का साथ हो तो क्या कहने...फिर आइये चायखाने चलते हैं...इन बैठकियों में खालिस बकैती भी होती है और विचारों की नई धाराएं भी बहती हैं...साथ ही समकालीन समाज के सरोकारों और विकारों पर सार्थक बहस भी होती है...आपका भी स्वागत है इस बैठकी में...आइये गरमा-गरम चाय के साथ कुछ बतकही हो जाए...
6 comments:
संघर्ष की यह दास्तान सच की वह चाय है जिसे हम जैसे बहुतों पीते हैं… मगर भूल भी जाते हैं…
बहुत बढ़िया…।
लगे रहो।
har ilahabadi ke sangharsh ki dastan to kuchh aisi hi hoti hai. par ye samajh nahi aaya ki sunil bhai ka kya majra hai. poore lekh mein main is prasang ke sandarbh ko khojata raha...
abhinav.
अरे! अभिनव भाई मैने लेख का टाइटिल 'लल्ला चुंगी की चाय बैठकी' लिखा था...पर स्टोरी की एडिटिंग कराते समय जल्दबाजी में इंटर मार दिया... इसकारण सुनील भाई का नाम बाई डिफॉलट आ गया...
बढ़िया है, हम भी कटरा की चाय का लुत्फ़ नहीं भूले हैं, और उस भाषा का भी..
जिसमें कहते थे की "ज़रा कितबिया दीजियेगा गुरूजी."
आपको शुभकामनाएं.
hi sudhir,
well thanx for the response and clarification regarding the title of the blog.
abhinav raj.
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