Friday, April 11, 2008

dawe hain dawon ka kyon

aaj phir chai batithkee dekhi sunil bhai ka photo load karne ka unguided type ka prayas usfal raha. kal kamre par sunil bhai dawa kar rahe the ki photo naitkee me pad chuki hai aur photos ne baithkee me aag lagau type ka mahaul paida kar diya hai. unka dawa ek dum teekh nikla hindustani neta ki tarah. khair baki sub khairiyat hai hum log philhal ek saal meerut me hi hain. ye baat sarva samti se tayn hui hai. jis par hum dono aadig hain main parvat ki tarah aur sunil bhai...... ki tarah . upar se idea lagiye.phil aaj kal ka kamra geet (ye rastra geet type ke cheej hai )
jo wada kiya hai nibhna padega .... but kaise

बड़ा बाजार और बदलता इलाहाबादी

बाजार अब लोगों को नए जमाने के साथ रहने की तमीज सिखा रहा है। छोटे शहरों में पहुंचते बड़े बाजार ये सिखा-बता रहे हैं कि अब कैसे रहना है, कैसे खाना है, क्या खरीदना है, कहां से खरीदना है, कितना खरीदना है और क्या किसके लिए खरीदना जरूरी है। बस एक बार बाजार तक पहुंचने की जरूरत है। छोटे शहरों के लोग बाजार पहुंचने में लेट न हो जाएं। इसके लिए छोटे शहरों तक खुद ही बड़ा बाजार पहुंच रहा है। घर की जरूरत का हर सामान करीने से वहां लगा है। इतने करीने से कि, काफी ऐसा भी सामान वहां जाने के बाद जरूरी लगने लगता है जो, अब तक घर में किसी जरूरत का नहीं था। हमारे शहर इलाहाबाद में भी बड़ा बाजार पहुंच गया है।

अब इलाहाबाद छोटा शहर तो नहीं है लेकिन, बाजार के मामले में तो, छोटा ही है। कम से कम मैं तो, ऐसा ही मानता हूं। लेकिन, बड़ा बाजार वालों को यहां के बड़ा बाजार की समझ हो गई। इससे सस्ता और कहां का नारा लेकर बड़ा बाजार ने अपनी दुकान इलाहाबाद में खोल ली। बड़ा बाजार पहुंचा तो, 40 रुपए के खादी आश्रम के तौलिए से हाथ-मुंह पोंछने वाले इलाहाबादियों को एक बड़ा तौलिया, महिलाओं के लिए एक नहाने का तौलिया, दो हाथ पोंछने के तौलिए और दो मुंह पोंछने के छोटे तौलिए का सेट बेचने के लिए। गिनती के लिहाज से ये 6 तौलिए का पूरा सेट है 599 रुपए का, जिसकी बड़ा बाजार में कीमत है सिर्फ 299, ऐसा वो लिखकर रखते हैं। इलाहाबादी खरीद रहे हैं महिलाओं के नहाने वाले तौलिये से भी पुरुष ही हाथ मुंह पोंछ रहे हैं क्योंकि, अभी भी इलाहाबाद में महिलाएं बाथ टॉवल लपेटकर बाथरूम से बाहर आने के बजाए पूरे कपड़े पहनकर ही बाहर आती हैं। लेकिन, बड़ा बाजार इलाहाबादियों के घर में बाथ टॉवल तो पहुंचा ही चुका है।

इलाहाबादी परिवार का कोई सदस्य सुबह उठकर गंगा नहाने गया तो, घाट के पास दारागंज मंडी से हरी सब्जी, आलू-मिर्च सब लादे घर आया। गंगा नहाने नहीं भी गया तो, अल्लापुर, बैरहना, फाफामऊ, तेलियरगंज, कीडगंज, मुट्ठीगंज, सलोरी, चौक जैसे नजदीक की सब्जी मंडी से दो-चार दिन की सब्जी एक साथ ही उठा लाता था। चार बार मोलभाव करता था। झोला लेकर जाता था। सब एक साथ भरता जाता था। सुबह सब्जी लेने गया तो, साथ में जलेबी-दही भी बंधवा लिया। लेकिन, अब बड़ा बाजार आया तो, सब सलीके से होने लगा। आलू भी धोई पोंछी और पॉलिथीन में पैक करके उसके ऊपर कीमत का स्टीकर लगाकर मिलने लगी है। बाजार ने नाश्ते का भी अंदाज बदल दिया है। नाश्ते में इलाहाबादी दही-जलेबी, खस्ता-दमालू की जगह सॉस के साथ सैंडविच खाने लगा है।

बच्चों के लिए कार्टून कैरेक्टर बनी टॉफी के लिए भी इलाहाबादी बड़ा बाजार जाने लगा है। टॉफी का बिल देने के लिए लाइन में लगा है। पीछे से किसी ने मजे से बोला क्या एक टॉफी के लिए इतनी देर लाइन में लगे हो- ऐसही लेकर निकल जाओ। लाइन में ठीक पीछे खड़ा आलू की पॉलिथीन वाला जो, शायद मजबूरी में सलीके में था, खीस निपोरकर बोला-- चेकिंग बिना किए नए जाए देतेन, पकड़ जाबो। और नए तो, अइसे जाइ दें तो, सब भर लइ चलें।

इलाहाबाद का बिग बाजार तीन मंजिल के कॉम्प्लेक्स में खुला है। तीसरी मंजिल से खरीदारी के लिए जाते हैं। पहली मंजिल पर बिल जमा करके जेब हल्की करके और हाथ में बिग बाजार का भारी थैला लेकर बाहर निकलते हैं। इन तीन मंजिलों के चढ़ने-उतरने में और बिग बाजार की लाइन में लगे-लगे इलाहाबादी बदल रहा है। इलाहाबादी लाइन में लगने लगा है। सलीके से अपनी बारी आने का इंतजार कर रहा है। 55 साल का एक इलाहाबादी बाजार के साथ सलीका सीखती-बदलती अपनी 18-19 साल की बिटिया के साथ सॉफ्टी खा रहा है, बड़ा बाजार के भीतर ही। बड़ा बाजार जिस कॉम्प्लेक्स में खुला है उसके ठीक सामने शान्ती कुल्फी की दुकान है। शांती की कुल्फी-फालूदा इलाहाबादियों के लिए कूल होने की एक पसंद की जगह थी (जब तक कूल शब्द शायद ईजाद नहीं हुआ रहा होगा)। लेकिन, कुल्फी-फालूदा अब इलाहाबादियों को कम अच्छा लग रहा है, होंठ पर लगती सॉफ्टी का स्वाद ज्यादा मजा दे रहा है।

बड़ा बाजार के ही कॉम्प्लेक्स में मैकडॉनल्ड भी है, हैपी प्राइस मेन्यू के साथ। सिर्फ 20 रुपए वाले बर्गर का विज्ञापन देखकर इलाहाबादी अंदर जा रहा है और 100-150 का फटका खाकर मुस्कुराते हुए बाहर आ रहा है। इलाहाबादी पैकेट का आटा लाने लगा है, पैकेट वाले ही चावल-चीनी की भी आदत पड़ रही है। सलीके से रहने-खाने-पहनने को बाजार तैयार कर रहा है। घर का आटा-दाल-चावल खरीदकर बिल काउंटर पर आते-आते इलाहाबादी फिर ठिठक रहा है, अमूल कूल कैफे का टिन भूल गया था। लाइन लंबी थी, नंबर आते तक अमूल कूल कैफे के 2 चिल टिन भी बिल में शामिल हो चुके हैं।

बाजार सलीका सिखा रहा है! बाजार में सलीके से रहने के लिए ब्रांड का सबसे अहम रोल है। जितनी ज्यादा ब्रांडेड चीजें, उतना ही ज्यादा सलीका (अब माना तो ऐसे ही जाता है)। किसी भी बड़े से बड़े बाजार में मिल रहे ब्रांड का नाम लीजिए। इलाहाबादी उस ब्रांड से सजा हुआ है। बाजार आया तो, अपने साथ बिकने की गुंजाइश भी बनाता जा रहा है। होली-दीवाली, कपड़े-जूते और साल भर-महीने भर का राशन एक साथ खरीदने वाला इलाहाबादी भी हफ्ते के सबसे सस्ते दिन का इंतजार कर रहा है। और, सबसे सस्ता बुधवार आते ही बड़ा बाजार में लाइन में लग जाता है।

मुझे याद है 5-7 साल पहले वुडलैंड का कोई खास मॉडल का जूता सिविल लाइंस के कपूर शूज, खन्ना शूज और ऐसी ही कुछ और बड़ी दुकानों के चक्कर लगाने पर भी मिल जाए तो, मजा आ जाता था। अब वुडलैंड के हर मॉडल से बाजार सजा हुआ है। दूसरे बदलते इलाहाबादियों की ही तरह मैकडॉनल्ड, बिग बाजार और दूसरे ऐसे ही खास ब्रांड्स को समेटने वाले मॉल में गया तो, छोटे भाई ने कहा गाड़ी आगे लगाइए, यहां पार्किंग मना है। सिविल लाइंस में जहां कहीं भी गाड़ी खड़ी कर देने का सुख था। कार की खिड़की से झांकते रास्ते में लोगों से नमस्कारी-नमस्कारा करते निकलने वाले इलाहाबादियों का ये सुख बाजार ने उनसे छीन लिया है। अब इलाहाबादी सिविल लाइंस में पार्किंग खोजता है। पार्किंग खाली नहीं दिख रही थी तो, छोटा भाई गाड़ी में ही बैठा, मैं इलाहाबाद को बदल रहे बाजार के दर्शनों के लिए चल पड़ा। खैर अच्छा-बुरा जैसा भी सही बाजार उन शहरों के लोगों को बदल रहा है जो, बाजार के नाम से ही बिदक जाते हैं। बाजार लोगों को चलने-दौड़ने के लिए तैयार कर रहा है।

Thursday, April 10, 2008

लल्ला चुंगी की चाय बैठकी ....

याद आती है हमें उन दिनों की जब मैं इलाहाबाद विश्वविधालय का छात्र था और अपने सभी साथियों के साथ कटरा के लक्ष्मी चौराहे के पिंटू की दुकान पर बैठकी किया करता था। उन दिनों की बात तो और थी, ना तो गम था और ना किसी बात का अफसोस। बस हंसी मजाक का दौर जब चल पड़ता था तो समय का पता ही नहीं चलता था और एक-दूसरों की खिंचाई करने का अपना ही कुछ मजा था। हम सभी 10-12 मित्रों ने पत्रकारिता करने के बाद, जब इलाहाबाद छोड़ने का मन बनाया तो मन में एक उमंग और एक ख्वाहिश थी कि पत्रकारिता हमें जीवंत बनाएं रखेंगी और एक नयी सोच को बनाएगें... जब मैं दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर ऊतरा तो ऊफ की आवाजा जैसे मन से निकली कि मैं कहां आ गया...खैर मन में एक उत्साह था कि कुछ करना है। जब मैं नोएडा की धरती पर कदम रखा और चैनलों के दरवाजों पर दस्तक देने लगा तो मालूम चला कि जीवन का मतलब क्या है कि कितनी मुश्किल से लोग संघर्ष करके अपना स्थान बनाते है। घर से दूर था लेकिन मित्रों से संपर्क इतना अच्छा था कि समय कैसे बीत जाता पता ही नहीं चलता था। लल्ला चुंगी तो दूर था लेकिन मन में एक आस थी कि लड़ाई जीतनी है... इसीलिए हम सभी मित्र एक जुट थे। सभी मित्रों की अपनी-अपनी महत्वकांक्षा थी लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा किसी पर भारी नहीं पड़ती थी... हम सभी मित्रों का दिमाग एक नहीं कई था और सभी मिलकर सोच को अंजाम देते थे और इसी का परिणाम निकला कि हम मित्रों के बीच से कोई डैडी बनकर निकला तो कोई ददू... लेकिन सभी का मकसद एक था... कुछ करना है। इलाहाबाद की मिट्टी को बदनाम नहीं होने देना है... शायद इसी का परिणाम है कि आज सभी मित्र अच्छी से अच्छी जगह काम कर रहे है... और समय आने पर इलाहाबाद का नाम रोशन भी करेंगे....जय हिंद

Wednesday, April 9, 2008

sunil bhai ki photo ka mamla

sunil bhai ke photo dalne ke chakkar me main main aadhe ghante se baitha hoon . woh phone per bakiti kar rahe hai. photo bahut badhiya hai lekin sunil bhai daal de to sukr nmaniye .net bahut dhime chal raha bilkul allahabad ki jindgi ki tarah. aadhe ghante main aab jakar khula .aab photo load karne ka option nahi mil raha hai.khair umeed rakhiye sunil bhai ki photo ek aadh din me aapko dekh ne ko mil jayengee. bas main office ke kaam se phursat pa jaoon aur sunil bhai phone se

देश में लोकतंत्र की सबसे मजबूत पाठशाला है इलाहाबाद विश्वविद्यालय

( इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पहला अंतराष्ट्रीय पुरातन छात्र सम्मेलन 16-17-18 फरवरी को हुआ। किसी वजह से इसमें मैं जा नहीं पाया। इस पुरातन छात्र सम्मेलन की पत्रिका के लिए मुझसे भी विश्वविद्यालय में मेरे विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दिनों के बारे में लेख मांगा गया था। जो, विश्वविद्यालय की पत्रिका में छपा है। मैं यहां वो लेख वैसे का वैसा ही छाप रहा हूं। ये लेख इस बात पर भी मेरे विचार हैं कि पढ़ाई के साथ छात्र राजनीति कितनी सही है। मुझे लगता है कि इलाहाबादी चाय बैठकी के लिए ये प्रासंगिक हो सकता है और बैठकी में बहस भी इस पर हो सकती है।)

पढ़ाई हमेशा अच्छे भविष्य और मजबूत व्यक्तित्व की बुनियाद होती है। और, मैंने जो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई के दौरान पाया कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों का गजब का व्यक्तित्व विकास होता है। मैं आज जो कुछ भी हूं उसका बड़ा योगदान इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे पढ़ाई के 7 साल रहे हैं।

मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कोई भी चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन, पढ़ाई के दौरान छात्रसंघ चुनावों में सक्रिय हिस्सेदारी की वजह से मैं उन्हीं दिनों देश की संसदीय परंपरा से भली-भांति वाकिफ हो गया था। 1993-2000, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उस संक्रमण काल के आखिरी दौर में गिना जा सकता है जिसकी एक दशक पहले शुरुआत हुई थी। उस समय तक सत्र देरी से चल रहे थे। विश्वविद्यालय में पढ़ाई का सत्र तो देरी से चल ही रहा था। छात्रसंघ के चुनाव भी समय पर नहीं हो रहे थे। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (UPPCS) के भी 3-3 पुराने सत्रों के परिणाम एक के बाद एक आ रहे थे। यानी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर आगे की योजना बनाने वाले छात्र-छात्राएं, चुनाव लड़कर-जीतकर आगे संसद-विधानसभा का रुख करने की चाहत रखने वाले छात्रनेता और IAS-PCS बनकर किसी जिले में अपनी काबिलियत दिखाने की हसरत रखने वाले छात्र सभी के लिए ये संक्रमण काल था। उस समय ये बात ज्यादा समझ में नहीं आती थी।

खैर, 1996 के बाद से सत्र धीरे-धीरे फिर पटरी पर आने लगे थे। 1998 में शायद ही कोई सत्र लेट रहा हो। 6 महीने के कार्यवाहक कुलपति प्रोफेसर वी डी गुप्ता और उसके बाद आए कुलपति प्रोफेसर चुन्नीलाल क्षेत्रपाल ने विश्वविद्यालय को पटरी पर लाने के लिए कड़े फैसले लिए। बीस-बीस सालों से छात्रावस के कमरे में कब्जा जमाए बैठे बूढ़े छात्रों को कमरों से बाहर निकालकर नए छात्रों को मेरिट के आधार पर कमरे मिलने लगे।

एक वाकया जो मुझे याद आ रहा है। विश्वविद्यालय में सत्र की देरी से परेशान छात्रों और छात्रनेताओं का एक वर्ग इस बात के लिए पूरी तरह से मन बना चुका था कि अब किसी भी कीमत पर परीक्षा में देरी नहीं होने दी जाएगी। प्रोफेसर चुन्नी लाल क्षेत्रपाल भी इस फैसले पर मजबूत बना चुके थे कि परीक्षा नहीं टाली जाएगी चाहे जो, हो। लेकिन, सस्ती लोकप्रियता के लिए छात्रनेता, छात्रों के एक वर्ग ने कुलपति पर विधि की परीक्षाएं फिर से टालने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। इसके बाद परीक्षा विरोधी और परीक्षा समर्थक खेमों ने विश्वविद्यालय परिसर में रजिस्ट्रार ऑफिस के सामने अगल-बगल ही मंच लगाकर भाषण करना शुरू कर दिया। भाषण का दुखद अंत मारपीट के साथ हुआ लेकिन, परिणाम सुखद ये रहा कि परीक्षा नियत समय पर ही हुई।

खैर, लोक सेवा आयोग चौराहा और यूनिवर्सिटी के सामने से साइंस फैकल्टी तक जाने वाली सड़क पर आए दिन धरना प्रदर्शन आम बात थी। लेकिन, एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा अपील करती थी कि कहीं भी किसी धरना प्रदर्शन में मुझे ये याद नहीं आ रहा है कि कहीं भी छात्रों ने आंदोलन के दौरान आम लोगों को परेशान किया हो। यही वजह है कि इलाहाबाद अकेला शहर होगा जहां, परिवारों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलनों को मदद मिलती रही है।

बूढ़े-बुजुर्ग (कहलाते सब छात्रनेता ही थे) नेता परिसर में छात्रों के हितों का बीड़ा उठाए घूमते थे। लेकिन, मुझे अपने समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेताओं की एक अच्छी बात ये थी कि दुर्गुणों (शराब, सिगरेट, अपराध) का आरोप शायद ही किसी छात्रनेता पर लगा हो। परिसर में एक साथ अगर 10-12 नौजवानों के बीच में कोई एक खद्दरधारी घूम रहा है तो, आसानी से समझ में आ जाता था कि कोई छात्रनेता चल रहा है। और, अगर एक ही उम्र के ढेर सारे लड़के चुहल करते घूम रहे हैं और किसी एक लड़के के लिए बीच-बीच में नारे भी लगा रहे हैं तो, मतलब साफ है अगले चुनाव के लिए एक नया छात्रनेता तैयार हो रहा है।

चुनाव और परीक्षा के सत्र में देरी की वजह से 1995 के चुनाव तक ज्यादा बुजुर्ग हो चुके छात्रनेताओं (35-45 साल) के बीच नए छात्रनेताओं (20-28 साल) की भी पूरी जमात तैयार हो चुकी थी। उस समय ये भी चर्चा शुरू हो गई थी कि छात्रसंघ चुनाव लड़ने की उम्रसीमा अधिकतम 28 साल होनी चाहिए। मुझे याद है गोरखपुर में 25 साल की उम्रसीमा लागू की गई तो, वहां के छात्रसंघ के महामंत्री जो, अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते थे, उम्रसीमा में थोड़ी छूट के लिए इलाहाबाद उच्चन्यायालय में याचिका दाखिल करने आए थे। उनकी उम्र 26 साल हो चुकी थी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के नीचे खड़े होकर वो पान खा रहे थे कि तभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यक्ष का चुनाव लड़ने वाले 2 (40 साल के ऊपर के) बुजुर्ग छात्रनेता वहां आ गए। उनको देखने के बाद गोरखपुर से उम्रसीमा में छूट के लिए आए छात्रनेता ने चुनाव लड़ने का इरादा त्याग दिया और बिना याचिका दाखिल किए ही लौट गए।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में किसी के छात्रनेता बनने की भी शुरुआत बड़े रोचक तरीके से होती थी। पिछले चुनाव मे किसी छात्रनेता के पीछे की सबसे सक्रिय मंडली में से किसी एक को अगला चुनाव लड़ाने की तैयारी हो जाती थी। तर्क ये कि जब हम पुराने छात्रनेता के लिए 100 वोट जुटा सकते हैं तो, अपने साथी के लिए तो, 500 वोट जुटा ही लेंगे। कुछ इसी तरह से हम लोगों की 40-50 लोगों की एक जबरदस्त छात्रों की मंडली (इसमें मेरे जैसे इलाहाबाद में अपने घर में रहने वाले और बाहर के जिले, प्रदेश से आकर छात्रावास या डेलीगेसी में रहने वाले छात्र थे।) ने भी अपने साथ के मनीष शुक्ला को चुनाव लड़ा दिया। मनीष बाद में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बैनर से चुनाव लड़े और फिर बहुत ही कम समय में भारतीय जनता युवा मोर्चा के रास्ते जौनपुर की खुटहन विधानसभा का चुनाव लड़ा। कुछ यही तरीका होता है इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रनेता के चुने जाने का। यानी एकदम लोकतांत्रिक तरीका।

इलाहाबाद को लोकतंत्र की मैं सबसे मजबूत पाठशाला कह रहा हूं तो, इसके पीछे वहां के छात्रों के चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने और अपना नेता चुनकर उसे जिताने तक की बात कर रहा हूं। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के अलावा इलाहाबाद विश्वविद्यालय देश का अकेला विश्वविद्यालय होगा जहां, आमने-सामने छात्र नेताओं के मंच लगते हैं। स्थानीय मुद्दों से ज्यादा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बहस होती है।

विश्वविद्यालय मार्ग पर चुनाव के एक दिन पहले लगने वाले ये मंच नेता की जीत-हार का पैमाना तय करते हैं। छात्रनेता के समर्थन में पुराने-नए छात्रनेता, पूर्व पदाधिकारी आकर भाषण देते हैं और माना जाता था कि जिसका मंच सबसे बाद तक टिका रहता उसका चुनाव जीतना लगभग तय हो जाता था। जैसे किसी लोकसभा चुनाव में नेता के पक्ष में राष्ट्रीय, राज्य के नेताओं की मीटिंग होती है ठीक वैसे इलाहाबाद में दिल्ली, जेएनयू, बीएचयू या प्रदेश के दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्रसंघ पदाधिकारी भी अपने प्रत्याशियों के प्रचार में आते थे।

इलाहाबाद की लोकतंत्र की पाठशाला की एक और अद्भुत बात जो, मैं जोड़ रहा हूं वो, हैं यहां के छात्रसंघ चुनाव में निकलने वाला मशाल जुलूस। मशाल जुलूस विश्वविद्यालय मार्ग पर लगे मंचों से नेताओं का भाषण खत्म होने के बाद शुरू होता था। फिर समर्थ प्रत्याशी अपने चुनाव कार्यालय से बांस की खपची, जला तेल, कपड़ा और मिट्टी से बनी कुप्पी जैसी मशाल लेकर निकलते थे। हर प्रत्याशी के जुलूस के बीच में दो ट्रॉली पर अतिरिक्त जला तेल होता था जो, बुझती मशाल को आखिर तक जलाए रखने में मदद करता था। ये मशाल जुलूस अगली सुबह होने वाली चुनाव की दिशा तो तय करता ही थी। लड़कों के लिए ये महिला छात्रावास में बिना रोक घुसने का एक लाइसेंस भी था। लड़कियों के छात्रावास के दरवाजे खुले होते थे। अपने से तय नियम के मुताबिक, एक-एक जुलूस अंदर जाते थे और लड़कियों की ओर से फेंकी गई फूल-मालाओं के साथ थोड़ा और उत्साह से भरकर वापस आ जाते थे। वैसे, ये परंपरा इलाहाबाद में जसबीर सिंह के एसपी सिटी रहने के समय पहले आरएएफ के घेरे में बंधी फिर टूट गई। वैसे, मैंने उद्दंड से उद्दंड छात्रों को भी कभी इस दौरान लड़कियों के छात्रावास में कोई बद्तमीजी करते नहीं देखा था। लोकतंत्र की एक और बेहतर मिसाल।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चुनाव लड़ने वाले छात्रनेता का चुनाव क्षेत्र एक संसदीय क्षेत्र से भी बड़ा होता है। मेरा घर इलाहाबाद में है। लेकिन, मैंने इलाहाबाद की गलियों को, मोहल्लों को नजदीक से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के चुनावों के दौरान ही देखा। परिसर के मुद्दों के अलावा जाति, क्षेत्र, छात्रावास, डेलीगेसी इन सभी मुद्दों पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेताओं को बैलेंस करके चुनाव जीतना होता था। इलाहाबाद में मेरे समय में दक्षिणपंथी छात्र संगठन और वामपंथी छात्र संगठन दोनों ही काफी सक्रिय रहते थे। वामपंथी छात्र संगठनों की वोटों की मामले स्थिति काफी पतली रहती थी जबकि, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद मेरे समय में बहुत ही मजबूत स्थिति में था। लेकिन, सेमिनार, धरना-प्रदर्शन पर हर तरह के छात्र संगठनों की मौजूदगी परिसर और परिसर के बाहर निरंतर बनी रहती थी। इस सबके बावजूद आज संसदीय चुनावों को बेहतर करने के लिए जिस बात की सबसे ज्यादा वकालत की जा रही है वो, मेरे समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में खुद ही चल रही व्यवस्था का हिस्सा बन गया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बैनर कभी चुनाव नहीं जिता पाता था। मजबूत व्यक्तित्व चुनाव जीतने की पहली शर्त होता था।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मिलने अनुभवों के आधार पर ही मेरा ये मजबूत विश्वास है कि पढ़ाई के दौरान हर लड़के-लड़की को किसी न किसी छात्र संगठन से जरूर जुड़ना चाहिए। भले ही वो राइटिस्ट हो, लेफ्टिस्ट हो या फिर सोशलिस्ट हो। क्योंकि, किसी छात्र संगठन में काम करने से सोचने और किसी बात पर प्रतिक्रिया देने की जो आदत बनती है वो, ताउम्र जिंदगी का अहसास दिलाती रहती है।

छात्रसंघ चुनावों के नोटीफिकेशन के साथ ही परिसर में न्यासी मंडल के आदेश ही काम करते थे। छात्रसंघ चुनाव कब होंगे, कितने दिनों तक प्रचार हो सकेगा। प्रत्याशी के लिए आदर्श आचार संहिता क्या होगी, ये सब तय करना न्यासी मंडल का काम होता था। न्यासी मंडल का अध्यक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त जैसी भूमिका में होता था। प्रोफेसर जी के राय को इस बात का जबरदस्त अनुभव है क्योंकि, 1995 के बाद से वो लगातार इस कुर्सी को संभाले हुए हैं। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री, उपमंत्री और प्रकाशनमंत्री संसद के मंत्रिमंडल जैसे माने जा सकते हैं जिनका सीधा चुनाव होता है और छात्रावास तथा डेलीगेसी से चुने जाने वाले सदस्य विश्वविद्यालय की संसद के संसद सदस्य जैसे होते हैं।

छात्रसंघ चुनावों के दौरान होने वाल भाषणों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के आत्मविश्वास का अंदाजा लगाया जा सकता है। उस समय हर दूसरा वक्ता चुनाव में इस बात का जिक्र जरूर करता था कि जैसे पंजाब में गेहूं की फसल होती है वैसे ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय से IAS, PCS निकलते हैं। इतना ही नहीं ये भी जरूर गिनाया जाता था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने देश को कई प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री, राज्यपाल और एक से बढ़कर एक विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार दिए हैं। लेकिन, इसी गुमान में विश्वविद्यालय में एक जो सबसे खराब बात हुई थी कि ये विश्वविद्यालय बदलते भारत के साथ खुद को बदल नहीं रहा था। नॉसट्रैल्जिया में जी रहा था। लेकिन, हमारे विश्वविद्यालय से निकलते-निकलते विश्वविद्यालय में सुधार की प्रक्रिया का पहला चरण लगभग पूरा हो चुका था।

विश्वविद्यालय में इसके पहले भी पुरातन छात्र सम्मेलन होते रहे हैं। लेकिन, 16 से 18 फरवरी तक ये विश्वविद्यालय का पहला अंतरराष्ट्रीय पुरा छात्र सम्मेलन हुआ है। शायद इस मामले में भी ये पहला होगा कि इस बार कोई बुजुर्ग छात्रसंघ अध्यक्ष, महामंत्री पुरा छात्र सम्मेलन का इस्तेमाल अपने राजनीतिक करियर को दुरुस्त करने के लिए नहीं कर रहे हैं। बल्कि, ये पुरा छात्र सम्मेलन इस विश्वविद्यालय को उन दिनों की याद दिलाएगा जब ये देश में ऑक्सफोर्ड का प्रतिमान विश्वविद्यालय माना जाता था। वैसे ये प्रतिमान मेरे जैसों को तब भी बुरा लगता था, अब भी बुरा लगता है। क्योंकि, मेरा मानना है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वो सारी काबिलियत है जिसके बूते ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज को इस विश्वविद्यालय से उपमा लेनी पड़े। और, ये पुरातन छात्र सम्मेलन इस आंदोलन की शुरुआत हो सकती है।

विश्वविद्यालय के अब के कुलपित प्रोफेसर राजेन हर्षे से मेरी जो एक मुलाकात हुई है और जो उनके बारे में मेरी राय बनी है वो, ये कि प्रोफेसर हर्षे किसी भी तरह सबसे पहले विश्वविद्यालय की माली हालत ठीक करना चाहते हैं। आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। यही वजह है कि विश्वविद्यालय में ढेर सारे नए वोकेशनल कोर्सेज शुरू हो चुके हैं। जो, विश्वविद्यालय के बदलते भारत यानी यंग इंडिया के साथ कदम मिलाने का संकेत दे रहा है। मैं उम्मीद करता हूं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का बंद पड़ा जर्नलिज्म डिपार्टमेंट भी जल्द ही शुरू हो सकेगा।

प्रोफेसर हर्षे से बस मेरा एक अनुरोध है कि वो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ को भारतीय लोकतंत्र की मजबूत पाठशाला बने रहने के लिए भी जरूरी फैसले लें। पढ़ाई में राजनीति का घालमेल नहीं होना चाहिए। लेकिन, दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को चलाने वाले नेता अच्छी पढ़ाई करेंगे और लोकतंत्र के सबक अच्छे से सीखेंगे तभी वो, अच्छे नेता बन सकेंगे। इसके लिए जरूरी पहल इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे परिसरों से ही हो सकती है। और, प्रोफेसर हर्षे जैसे विजनरी कुलपति ही पढ़ाई और राजनीति दोनों में बेहतर तालमेल का फॉर्मूला तलाश सकते हैं।

Tuesday, April 8, 2008

संजू बाबा और टीआरपी के लड्डू...!!!

मुझे याद है मुम्बई के वर्सोवा इलाके का वह बद्रीनाथ टावर। वही बद्रीनाथ टावर जहाँ उस दिन तमाम न्यूज़ चैनलों की ओबी वैन सुबह से ही मुस्तैद थी। तमाम रिपोर्टर और कैमरामैन साँस रोके खड़े थे। इंतज़ार इस बात का था कि कब अपने मुन्ना भाई और उनकी नई- नवेली दुल्हन के दीदार हों। बिल्डिंग के बाहर दरवाजे पर टकटकी लगाए पत्रकारों की इस बेचैनी से शायद संजू बाबा भी वाकिफ थे। लाल जोड़े में अपनी दुल्हन ( 'तथाकथित' शब्द जोड़ देना बेहतर होगा) मान्यता समेत वो बाहर आए। और मीडिया से कहा कि- "मैंने कहा था न कि जब मैं शादी करूँगा तो आप को पहले बुलाऊँगा ।" मुन्ना भाई मान गए कि आपको सब कुछ याद रहता है... और इसीलिए आपने मीडिया को बुलाया। पर हमारी याददाश्त भी कोई खास कमजोर नहीं है !
आपको याद दिला दूँ कि बाहर निकले "दत्त दंपति" के विजुअल्स याद कीजिए तो जितनी मजबूत पकड़ उनके हाथों की थी, उतनी ही मजबूती वो उस गाँठ को भी देने की कवायद कर रहे थे जिससे बँधे हुए वो बाहर आए थे। जिस पर गोला बना-बना कर चैनलों ने खूब दिखाया भी था।
पर ये क्या संजू बाबा...? वो गाँठ इतनी जल्दी ढीली पद गई...? या फिर कोई और चक्कर है...?
अब ये कौन सी बात हुई कि आप अपनी शादी बात से मुकर गए...और शादी को लिव इन रिलेशन का दर्जा दे दिया। अरे भाई "लिव इन" के लिए इतने ताम-झाम की भला कोई ज़रूरत होती है...? खैर संजू बाबा की सौ बुराइयाँ माफ़...। अरे भाई शादी में बुलाया था न ? और लड्डू भी खिलाया था न ? अरे भाई टीआरपी का लड्डू ...!!! अब क्या बच्चे की जान लोगे...!
संजू बाबा, यार कुछ भी करो पर थोड़ा संभाल के... समझे न ? अब पता नहीं तुम्हारी कौन सी खुराफात एक नया फसाना बन जाए। हमको क्या... हम तो फिर वही खा लेंगे। क्या पूछा ? अरे वही... टीआरपी के लड्डू...!!!
अभिनव राज

इलाहाबाद! एक गहरे बिछोह का नाता है तुझसे

इलाहाबाद आया तो दस साल की उम्र से ही घर-परिवार और दोस्तों से बार-बार बिछुड़ते रहने का इतना दंश झेल चुका था कि पत्थर बन गया था। इतना रो चुका था कि आंखों से आंसू निकलते ही नहीं थे। पलकों से लुढ़कने के पहले ही आंसू गरम तवे पर पड़े पानी की तरह छन्न से सूख जाते थे। आंसुओं को बनानेवाली ग्रंथियां भी सुन्न पड़ गई सी लगती थीं। लेकिन जब आखिरी बार इलाहाबाद छोड़ा तो कंपनी बाग, साइंस फैकल्टी के म्योर टॉवर, अपने अमरनाथ झा हॉस्टल, आनंद भवन के सामने बनी अपनी लाइब्रेरी, सीनेट हॉल, प्रयाग स्टेशन और फाफामऊ के पुल को पार करते हुए हंहक-हंहक कर रोया था। शुक्रिया इलाहाबाद, तूने मुझे फिर से रोना सिखा दिया, एक संज्ञाशून्य होते इंसान में नई संवेदना भर दी तूने।

इस बात का भी शुक्रिया इलाहाबाद कि सात साल के प्रवास में तूने इतने वेगवान मंथन से गुजारा कि अमृत या विष भी जो अंदर था, निकलकर बाहर आ गया। मैंने यहीं जाना कि देश और देशभक्ति का असली मतलब क्या होता है। जीवन का क्या मतलब होता है, इतिहास क्या होता है, शासन क्या होता है, सरकार क्या होती है। मैं आज़ादी की लड़ाई के संदर्भ-प्रसंग से यहीं परिचित हुआ। साहित्य को जाना, समाज को समझा। इलाहाबाद मैं तेरा ऋणी हूं कि आज जो कुछ भी नितांत मेरा है, वह तेरा ही दिया हुआ है। मैं उन सभी लोगों का ऋणी हूं जिनके ज़रिए देश-दुनिया और समाज का ज्ञान मुझ पर पहुंचा। वो न होते तो एकदम ठन-ठन गोपाल की तरह मैं कहीं अफसर बना कुढ़ रहा होता। शुक्रिया इलाहाबाद, तूने मुझे जीने का मकसद सिखाया।

इस बात का भी शुक्रिया इलाहाबाद कि तूने ही मुझे किसी लड़की के परिपक्व प्यार से पहला परिचय कराया। दिखाया कि अपने पैरों पर खड़ा होने की 100% काबिलियत रखनेवाली एक मेधावी लड़की भी कैसे अपने जीवनसाथी के चयन जैसे निजी फैसले को भी मां-बाप की इच्छाओं के हवाले छोड़ देती है और फिर पहाड़-सी ज़िंदगी अकेले काटने का अभिशाप खुद अपने ऊपर ओढ़ लेती है। देशप्रेम, सामाजिक उत्तरदायित्व, क्रांति के प्रति समर्पण भाव और निजी प्रेम में किसको वरीयता देनी चाहिए, यह सबक भी इलाहाबाद तूने ही मुझे सिखाया। तू नहीं होता तो इतने कठिन फैसले मैं एक झटके में नहीं कर सकता।

हां, कभी-कभी लगता है कि ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होता क्या होता। लेकिन इसके पीछे भाव बस यही रहता है कि कैसे अपनी और अपने जैसे सैकड़ों नौजवानों की ऊर्जा का और ज्यादा बेहतर इस्तेमाल समाज और देशहित में हो सकता था। कहीं भी, कोई भी पछतावा नहीं है कि मैंने सात साल इलाहाबाद में रहने के दौरान जो किया, वो क्यों किया। इसलिए अगर कुछ लोग कहते हैं कि मैं उस जीवन-खंड को डिनाउंस करता हूं तो मेरे प्यारे इलाहाबाद, तू उनकी बातों को दिल पर मत लेना क्योंकि वे जान-बूझकर झूठ बोल रहे हैं। पंथ की सोच से आच्छादित, जड़ों से कटे हुए, आत्मरति के शिकार हैं ये लोग। दया के पात्र हैं। नॉस्टैल्जिया में जीना इनकी मजबूरी है क्योंकि आज इनका व्यक्ति इतने ठहराव का शिकार हो चुका है कि कुछ भी साफ-साफ नहीं दिखता। इतने जड़ हो चुके हैं कि जड़ता को तोड़ने की इनकी सहज मानवीय इच्छा तक जड़ हो गई है।

इलाहाबाद छोड़ने के कई साल बाद वहां गया तो बस जहां-तहां भटकता रहा। कहां जाता? कहीं कोई और कुछ भी तो अपना नहीं बचा था। साइंस फैकल्टी में जाता तो कहां जाता। कोई क्लास तो लगनी नहीं थी अपनी। गुरुजनों से मिलना बेमतलब था क्योंकि इतनी कम क्लासेज़ में गया था कि कोई पहचानता ही नहीं। म्योर नाम के औपनिवेशिक तमगे पर गर्व करनेवाले अमरनाथ झा हॉस्टल में जाता तो किसके पास? हां, उसके दरवाज़े तक ज़रूर गया था। लेकिन न कोई देखनेवाला था, न पहचानने वाला। कर्नलगंज, कटरा, यूनिवर्सिटी रोड, यूनियन हॉल, सीनेट हॉल, वीमेंस हॉस्टल, ताराचंद, बैंक रोड, लक्ष्मी चौराहा, ममफोर्डगंज, अल्लापुर, सोहबतियाबाग... पूरे दिन हर उस जगह से गुजरता रहा जहां से तनिक-भी यादें जुड़ी थीं।

फिर शाम को ट्रेन पकड़कर अपने गांव की ओर रवाना हो गया। लेकिन आज भी लगता है कि मेरा कोई अंश अब भी कहीं इलाहाबाद में छूटा हुआ है। वह अब भी वहीं कहीं भटकता है। डेलीगेसी में, हॉस्टलो में, सड़कों पर चौराहों पर। नशे के आगोश में डूबते लड़कों में, कंप्टीशन की तैयारी करते मृग मरीचिका की सैर करते छात्रों में, बेरोज़गारी की जिल्लत में डूबे बूढ़े होते नौजवानों में। न जाने किस अधूरे मकसद को पूरा करने की तलाश है उसे। इसी तरह और भी टुकड़े हैं मेरे। कोई टुकड़ा नैनीताल में है तो कोई फैज़ाबाद में और कोई गोरखपुर में। लेकिन वर्तमान से इतना घिरा रहता हूं कि बाकी टुकड़ों का होश तभी आता है, जब कोई बताता है, जतलाता है, याद दिलाता है।

Monday, April 7, 2008

टीआरपी का गेमप्लान

नवजवान जब कॉलेज की पढ़ाई करके नौकरी की तलाश में निकलता है तो उसे क्या पता कि बाजार नाम की चीज भी आ गयी है। वह दिन रात कड़ी मेहनत करता है...एक सिफ्ट में नहीं बल्कि दो-दो सिफ्ट में काम करता है...वह आशावान रहता है कि आज नहीं तो कल नौकरी हाथ लगेगी। लेकिन जब तक उसे बाजार की समझ की तिकड़म का पता चलता है तब तक काफी समय निकला चुका होता है और वह टीआरपी के चक्कर में फंस कर हाय तौबा करने लगता है। मैं बात कर रहा हूं मीडिया की जो इन दिनों टीआरपी के गेमप्लान में फंसता जा रहा है और खबरों की जगह प्रोग्राम को जगह दिया जाने लगा है...चैनेल के अंदर लगातार मीटिंग करने का शिलशिला जारी रहता है और नवजवानों की भीड़ लगातार चैनेल के बाहर बढ़ती जाती है। अगर उनमें से कोई एक सफल हो जाता है तो उसके चेहरे पर खुशियां छा जाती है और अपने आप को एक अलग ग्रुप में समझने लगता है। आज नवजवानों भीड़ लगातार बढ़ती जा रही है उनमें खबरों की ललक कम, मगर पैसा और सोहरत कमाने की ललक ज्यादा रहती है और वह अपने को उसी भीड़ में शामिल कर रहे है जिनकी गुणवत्ता लगातार काम होती जा रही है। अगर चैनेलों के टीआरपी चार्ट पर एक नजर डाले तो हमें पता चल जाएगा कि पिछले तीन से चार सालों में चैनेलों का स्तर क्या रहा है? टीआरपी के चक्कर से हम तभी सामना कर पाएंगे जब हम एक सही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से काम करेंगे। और एक बात रोजगार का अवसर तभी बढ़ेगा जब हमें शिक्षा का अवसर समान रूप से मिलेगा और हर एक नवजवान अपने-अपने क्षेत्र में रोजगार को बढ़ाने के लिए ईमानदारी से प्रयास करेगा।

Sunday, April 6, 2008

As the song goes...

I don't believe in superstars,
Organic food and foreign cars.
I don't believe the price of gold;
The certainty of growing old.
That right is right and left is wrong,
That north and south can't get along.
That east is east and west is west.
And being first is always best.

But I believe in love.
I believe in babies.
I believe in Mom and Dad.
And I believe in you.

Well, I don't believe that heaven waits,
For only those who congregate.
I like to think of God as love:
He's down below, He's up above.
He's watching people everywhere.
He knows who does and doesn't care.
Sometimes I wonder who I am.

But I believe in love.
I believe in music.
I believe in magic.
And I believe in you.

Well, I know with all my certainty,
What's going on with you and me,
Is a good thing.
It's true, I believe in you.

I don't believe virginity,
Is as common as it used to be.
In working days and sleeping nights,
That black is black and white is white.
That Superman and Robin Hood,
Are still alive in Hollywood.
That gasoline's in short supply,
The rising cost of getting by.

But I believe in love.
I believe in old folks.
I believe in children.
I believe in you.

But I believe in love.
I believe in babies.
I believe in Mom and Dad.
And I believe in you.

Friday, April 4, 2008

Maha Shiva raatri

Ashok Bhai ne abhi kal hi aadesh kiya ki kuch naya kam nahin dikh raha hain tumhara...ye sahi bhi hain kyonki idhar beech mai thoda gharelu karadon ke chalte maidan se bahar raha halanki niyati dwara diya gaya ye nirwasan abhi poora hone ka naam nahin le raha hain phir bhi ashok bhai ke aadesh ka samman karte huye ye kuch purani tasveeren bhej raha hoon mulahiza farmayen....ek raaz ki bat ye ki mai aajkal Reporter banne ke phiraq mai laga hoon jo ki moolatah mai hoon....hindi font na hone ke karan yahan roman mai hi likha ja sakta hai ....maaf kariyega.... Har Har mahadev.....