फागुन में अल्हड़ हवा
खेलती है सरसों के फूलों से
फूलों को बनाती है फली
फली को दानों से भरपूर
दानों में भर देता है कड़वाहट
जिसे पसंद करते हैं लोग
सरसों का रासरंग देख
बौराने लगते हैं आम
धरती पर पथार बन जाता है महुआ
सरसों की तरह तृप्त नहीं होता वह
नहीं उतर पाता उसके मन से नशा
अर्क बन हवा में उड़ने
और फिर पानी बनने तक ।
ठीक वैसे ही जैसे बौराता हुआ आम
नशा उतरने तक भर जाता है रस से
पा जाता है निजात उस कड़वी खटाई से
जो बसंत ने थी कभी जगाई।
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