Wednesday, February 29, 2012

बसंत -------तीन


अब बसंत निशाचर की तरह
गुपचुप चांदनी रातों में
महुए के दरख्तों पर नहीं आता
और मुलायम मोती की मानिंद
जमीन पर पसर
सुगंध नहीं बिखेरता।


अब बसंत अमराइयों में नहीं
उतरता दबे पांव
पल्लव के कोमल कोर से
अचानक हुलक नहीं पड़ता
खटतूरस स्वाद नहीं जगाता।

टेसू बन दहकता नहीं
अमलताश की शाखों पर
वासंती पहन इतराता भी कहां है
गीतों में भी अब मुश्किल
उतरता है बिंदास बसंत ॥

वित्तमंत्री की चमड़े की
अटैची में बंद पन्नों में
रोशनाई की स्याह इबारतें बन
आता है बसंत अब

अब मुआ बसंत
आता है आमबजट की तरह
दरख्तों से वसूली की योजना बनाता
महसूल के नए-नए मद तैयार करता
जिसे सुन जर्द हो जाते हैं पत्ते और
फाख्ता हो जाते हैं होश की तरह

नई कोंपलों पर छापते हुए
चिंता की लकीरें चला जाता है बसंत
आखिरकार
क्यों न जाए चुपचाप बसंत
क्योंकि आमबजट की तरह
उसमें कहां होता है सपना
बेहतर आबोहवा का आश्वासन।
 

अब तो बस आता है बसंत
बिना किसी ऐलान के
सबकी आंखों में धूल झोंकता
ग्लोबल वार्मिंग का एहसास कराता
दबे पांव चला जाता है चोर की मानिंद।

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