Friday, December 9, 2011

समंदर में अदाकारी न होती।
तो लहरे इस कदर प्यारी न होती॥

जराइम से मेरा घर बच न पाता।
अगर घर में निगहदारी न होती॥

मैं तेरी बात बिलकुल मान लेता।
अगर ये बात सरकारी न होती॥

हमारे गांव के ठाकुर भी नौकरी करते।
अगर उनकी जमींदारी न होती॥

तरक्की कर गयीं होतीं ये बस्ती बांद्रा की।
अगर बस्ती में रंगदारी न होती।

ये मूमकिन था कि लंका बच भी जाती।
विभीषण की जो गद्दारी न होती॥

जराइम-अपराध
निगहदारी-चौकसी

अजित "अप्पू"

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

मैं तेरी बात बिलकुल मान लेता।
अगर ये बात सरकारी न होती॥
वाह...कितनी सच्ची बात कही है आपने...बधाई

संजय भास्कर
आदत....मुस्कुराने की
पर आपका स्वागत है
http://sanjaybhaskar.blogspot.com