Thursday, April 29, 2010

बूढ़ा घर.....



गर्मी की तपन से निजात दिलाते थे ये मकान,
तर हो जाता था कलेजा......
लेकिन समय के साथ लोग बदलते गये
छोड़ते गये अपने गांव को
भूलते गये गीली मिट्टी की खुशबू
शहर में फ्लैट के अंदर कैद हो गये वो लोग
जिनके गांवों के घरों कच्ची मिट्टी वाले आंगन थे
और आंगन के बीच तुलसी की बिरवा
सब बदल गया , ढह गया मिट्टी का वो मकान
किसी जिम्मेदार बुजुर्ग की तरह.
गांव गया था , कुछ ऐसे ही मकान गिरे मिले
और कुछ पक्की ईंटो में कैद।
गांव से मैं भी शहरवाला बन गया था
हाथ में डिजिटल कैमरा था और
कैद कर ली ये तस्वीर।

5 comments:

दिलीप said...

zamaane ki tez raftar ki poori jhalak dikhi bahur sundar...

Rajnish tripathi said...

पुरकैफ साहब आप ने तो नये जमाने की कोख में पल रहे संर्कीण सोच वाले लोगो को एक सीख दी है। इस कविता को पढ़ कर मुझे एक शेर याद आता है कि पुरानी इमारत को संभाल कर कौन रखता है इन प्यारे पंक्षी को अब पानी कौन देता है वो तो आप है जो जिंदा कर दिया याद बूढ़े घर को नही तो कौन पुरानी विरासत को याद रखता है।
रजनीश त्रिपाठी

संजय भास्‍कर said...

jab बूढ़े घर को नही तो कौन पुरानी विरासत को याद रखता है।

संजय भास्‍कर said...

जीवन की विडंबनाओ को दर्शाती के उत्तम रचना...

Crazy Photographor said...

jivan ki kadbi sachhai......