Monday, August 24, 2009

अनदेखी अनजानी सी
मधुर कल्पनाओं की सरिता में
तब बहते जाना
कितना अच्छा लगता था
कोलाहल से दूर कहीं
सूनी सड़कों पर उस धुंधली सी संध्या में
वो साथ तुम्हारा
कितना अच्छा लगता था
उन कम्पित अधरों को
मै जब छूने की कोशिश करता था
तब प्रतिवाद तुम्हारा
कितना अच्छा लगता था
किन्तु अब?........
यथार्थ के तिमिर कूप में
उन मधुर छनो की
केवल अनुजूंग ही शेष है
हाँ, बस स्मृति शेष है
१९९० से पहले लिखी रचनाओं में से एक...............