अनदेखी अनजानी सी
मधुर कल्पनाओं की सरिता में
तब बहते जाना
कितना अच्छा लगता था
कोलाहल से दूर कहीं
सूनी सड़कों पर उस धुंधली सी संध्या में
वो साथ तुम्हारा
कितना अच्छा लगता था
उन कम्पित अधरों को
मै जब छूने की कोशिश करता था
तब प्रतिवाद तुम्हारा
कितना अच्छा लगता था
किन्तु अब?........
यथार्थ के तिमिर कूप में
उन मधुर छनो की
केवल अनुजूंग ही शेष है
हाँ, बस स्मृति शेष है
१९९० से पहले लिखी रचनाओं में से एक...............
Monday, August 24, 2009
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1 comment:
sunder, anchuyi
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