Tuesday, September 16, 2008

रोटी का धर्म...

जो भीख माँग कर रोटी-रोज़ी चलाते हैं वे धर्मों के बँटवारों को नहीं मानते. उनके लिए मंदिर के भगवान, मस्जिद के रहमान या मालेगाँव के बड़ा कब्रिस्तान में कब्रों के निशान...सब बराबर होते हैं.राजनीति भिखारियों की इस धर्मनिर्पेक्षता की विशेषता से परिचित होती है इसीलिए कभी उनके माथे पर तिलक लगाकर रामसेवक बना दिया जाता है. कभी उनके सर पर टोपी रखकर, अल्ला हो अकबर का नारा लगवाया जाता है और कभी राजनीतिक शक्ति के प्रदर्शन के लिए उन्हें गाँव खेड़ों से बुला लिया जाता है.जिधर भी रोटी बुलाती है, ग़रीबी उधर चली जाती है. ग़रीबी की दुनिया खाते-पीते लोगों की दुनिया की तरह सीमाओं और सरहदों में नहीं बँटती. इसकी दुनिया रोटी से शुरू होती है और रोटी पर ही समाप्त होती है. वह ख़ुदा को मूरत या कुदरत के रूप में नहीं सोचती.इस ग़रीबी के लिए आसमान और ज़मीन दो बड़ी रोटियों के समान हैं जिनमें उसकी अपनी रोटी भी छुपी होती है, जिसको पाने के लिए कभी वह भजन गाती है, कभी कलमा दोहराती है और कभी जीसस की प्रतिमा के आगे सर झुकाती

1 comment:

Swarup said...

भूख की कोई जात नही होती ..पेट का कोई धर्म नही होता..
एक शायर ने कहा है ...
सारे दिन भगवान् के क्या मंगल क्या पीर ...
जिस दिन सोये देर तक भूखा रहे फकीर ..