Friday, November 18, 2011

अंखुआ

बुरा वक़्त है
सेहत पर भरी वक़्त
हवा ख़राब है
पानी भी है जानलेवा
सुबह की जिस ताजी हवा का
जिक्र सुनते हैं किस्सों में
गीतों, ग़ज़लों में
वो बयार अब कहाँ उतरती है
शाखों से,
रात भर ओस के दुलार में ठिठके
स्नेह में भीगे दरख्तों के
पंख झटकारने, पत्ते हिलाने
अलसाई शाखों को
झटकारने, झुमाने से
कहाँ पैदा होती है
बाद--नौबहार
सच में बहुत बुरा वक़्त गया है
सेहत के लिए
पेड़ अब वनुकुलित संयंत्र की
हवाएं पीकर हैं जिन्दा
ओस में रहकर भी
भींग कहाँ पाते हैं उसके स्नेह में
इस कठिन वक़्त में
जीने के लिए
लक्जरी कार से जाना पड़ता है दफ्तर
जिम में जाकर गलानी पड़ती है चर्बी
लगनी पड़ती है सुबह मीलों दौड़
करना पड़ता है योग और आसन
गेहूं, अदरक, अलोवेरा, तुलसी
गिलोय, मकोय का
पीना पड़ता है जूस
तब जाकर दिन भर आती-जाती
साँस आराम से,
बहुत जतन करना पड़ता है
सेहत के लिए
संयम बरतना पड़ता है खानपान में
रोज सुबह चबाकर
खाना पड़ता है अंखुआ
मूंग का, चने का
वनस्पतियों के फल से
कहाँ चल पा रहा अब काम
निठारी की शव परीक्षा में
अंखुए ही मिले थे क्षतविक्षत
सुना है ऐसा ही मैंने
सुना है
सुना है कसर लोगों को कहते
बहुत बुरा वक़्त गया है
आपने भी जरूर सुनी होगी
यह बात
-अजय राय

2 comments:

अनुपमा पाठक said...

प्रकृति से विमुख होना आने वाले वक्त को निरंतर और बुरा करता जाएगा!

Chaaryaar said...

thanks