सोलह पेज का अखबार
जिसकी आवाज पर खुलती है नींद
जिसका गहरा नाता है दैनिक क्रिया से
सोलह पेज का अखबार
जिसमें जैविक आनंद समाया है
चपोतने पर जो लगता है चौंसठ पेज का
सोलह पेज अखबार जो
दुनिया भर की खबर सुनाता है सुबह
चाय की चुस्की के साथ।
जिसकी पंक्तियों में तमाम
आशाएं, उम्मीदें दफ्न हैं।
जिसके हर्फों में हाजमें की गोली है
जिसकी सुर्खियों से सत्ता
का शेयर उठता गिरता है
जिसमें छपी आपकी तस्वीर
पूरे दिन वजूद का एहसास कर देती है
और गहरा, और गाढ़ा
और गर्वान्वित, और ताकतवर
सोलह पेज का वही अखबार
मेरी उनंदी आंखों में चुभता है
सुबह उसकी खड़ की आवाज
मुझे भर देती है एक भाव से
जिसमें असुरक्षा है, गर्व है,
स्पर्धा है, तर्क है
और भी जाने क्या-क्या है
वही सोलह पन्ने का अखबार
जिसमें खोजता हूं मैं अपना सोलहवा सांल
पचास पार की उम्र में भी
मगर
वही सोलह पन्ने का अखबार
बत्तीस, चौसठ, अस्सी
की गिनतियां पार करते समय
रक्तचाप, मधुमेह बनता है
दिल, गुर्दा, जिगर चाटता चलता है
सोलह पन्ने का अखबार
सब कुछ कहता है
बहुत कुछ बताता है
फिर भी चुप रहता है
उस दरख्त के हाल पर
जिसके लुगदी बनने पर
कागज बना
जिसके जलने से स्याही बनी
और जिसके खप जाने से
वह हर्फ बना जो
तय करता है सच का दायरा
झूठ की पर्देदारी।
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2 comments:
मरोड़े गए कबूतर की तरह
फड़फड़ करता हुआ
रोशनदान से गिरता है अखबार
और अपनी आखिरी साँसे गिनने लगता है
जनता, लोकतंत्र और रोटी के साथ!
...................रवि प्रकाश
vah bhai vah
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