रेत रीतती है तो
कराती है
समय की पहचान
मुट्ठी से रेत के
रीतने पर कभी सोचा अपने
क़ि कितना वक़्त फिसल गया
यूँही मुट्ठी में रेत, मिटटी
सहेजने में।
उँगलियों के पोरों के फासले से
कितनी रेत फिसल गई
घंटा, मिनट, सेकेण्ड बन।
काश क़ि
सहेजना छोड़
तानना सीख़ जाते इसे
सीख जाते हवा में लहराना
टूटते तब भी
पर एह्स्सास नहीं होता
क़ि रीत गयी उम्र रेत की मानिंद
रेतघड़ी बन
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1 comment:
वाह क्या बात है ...बहुत भावपूर्ण रचना.
कभी समय मिले तो http://akashsingh307.blogspot.com ब्लॉग पर भी अपने एक नज़र डालें .फोलोवर बनकर उत्सावर्धन करें .. धन्यवाद .
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