Saturday, May 7, 2011

दिन पूरा बीत गया, जीवन की आपा- धापी में,
हमने रिश्तों की शाखों को झकझोरा भी,
कुछ बातें थी, सूखे पत्ते बनकर टूट गयीं,
कुछ यादें थी, आंसू बनकर टपक गयीं,
हमने सारी रात उन पत्तों की आग को तापा भी,
कुछ बूँदें थी, खारे पानी की,
जो उस आग में जलकर धुंआ हुई,
अभी कुछ पत्ते बचे हैं शाखों पर,
इस उम्मीद से की,
अभी कुछ हरियाली की तासीर, बचीं है उन पर।

1 comment:

sumeet "satya" said...

Mohnish...aap accha likh rahe hain........ye kavita aur pichali dono kavitayen acchi lagi.........likhate rahiye...BDHAI