भूख से बेबस हुए, लाचार उस मजबूर से
पेट से घुटने सटाकर सो रहे मजदूर से
पूछिए क्यों रो रहे घर के दरों दीवार हैं
क्यों चली जाती हैं खुशियां देखकर ही दूर से
दर्द और तकलीफ की ये आयतें किस्से में हैं
और साहब आप कहते हैं कि हम गुस्से में हैं...
(उस किस्मतवाले के लिए ये लाइनें हैं जो अपनी किस्मत का खा रहा है, अपनी किस्मत
का चमका रहा है, हमारी मेहनत पर शहंशाह बनने का सब्ज़बाग सज़ाने वाले उस बेवकूफ
आदमी को मालूम नहीं कि गुस्से की पराकाष्ठा क्या हो सकती है...)
4 comments:
pahchanne me bhool ab aur n ho ,
jo kah rahe sahi usse door n ho,
ham aap jo inhen soch rahe
kahin ye hamari hi nazron ka kasoor n ho .
बहुत खूब अजीत ....इसे अतिशयोक्ति मत समझना पर तुम्हारी ग़ज़लें पढ़ कर दुष्यंत कुमार याद आ जाते हैं ...!
बहुत शुक्रिया सर...गदगद हूं इस उपमा से...
वाह, बहुत खूब...
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