Monday, July 27, 2009

ऐसी आज़ादी और कहाँ..?

ऐसी आज़ादी और कहाँ..?
दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा हाल ही में दिए उस फैसले का सबने स्वागत किया हैं जिसमे समलैंगिकता से संबंधित धारा '३७७' को हटाने के दिल्ली हाईकोर्ट ने आदेश दिए हैं...अब भारतीय संस्कृति पर एक बदनुमा दाग लग जायेगा क्योंकि 'ऐसी आज़ादी और कहा' ..जी हाँ...! होमोसेक्सुँलिटी में प्रयोग किये जाने वाले हर शब्द का मतलब ही कुछ और निकल रहा हैं ...'गे' शब्द की परिभाषा अब पूरी तरह से आम भाषा में खुलेआम प्रयोग की जाने लगी हैं..अगर आप किसी से पूछेंगे की मेरे साथ चलोगे तो यानि सामने वाला भौचक रहे जायेगा की वोह उसे चलो और गे दोनों ही कह रहा हैं..आंखिर अब खुलकर होमोसेक्सुँल्स सामने आ रहे हैं ...! दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बाद जैसे सबको खुली आज़ादी मिल गयी हो..हर चीज में गे शब्द का प्रयोग जैसे चलो गे , मिलो गे या तमाम वोह शब्द जिसमे आखिरी में गे शब्द लगता हैं....अब इस गे शब्द को हर आदमी खुल कर समाज में बोलने लगा हैं हैं क्योंकि इस बात की इजाज़त तो आंखिर उन्हें कानून ने ही दी हैं ...खुलकर समाज के सामने यह मानना की अब वोह पूरी तरह से आजाद हैं हर वोह काम करने के लिए जिसके लिए वोह पहले दस बार सोचते थे...चाहे वोह दिल्ली की सड़को पर खुलेआम एक दुसरे का हाथ पकड़ कर समाज को यह दिखाना की अब वोह गे संस्कृति को अपनायेगे ..! गे शब्द की जो परिभाषा थी वोह अब पूरी तरह से बदल चुकी हैं....लेकिन विदेशी संस्कृति को अपनाने वालो ने यह भी नहीं सोचा की इसका परिणाम क्या होगा...! लेकिन सवाल यहाँ उठता हैं की आंखिर इस बात की इजाज़त भी तो हमारे भारतीय कानून ने ही उन्हें दी हैं.. ! अभी भी कटघरे में कई ऐसे सवाल खड़े हैं जिसका जवाब किसी के पास नहीं हैं .....! जरुरत हैं तो सिर्फ सोचने की जो हम कर रहे हैं क्या वोह सही हैं.....?

2 comments:

प्रदीप कांत said...

आज़ादी नहीं, स्वच्छन्दता माने पतन दूर नहीं।

sarvesh upadhyay said...

दीपक मेरे दोस्त बात तो ठीक है लेकिन ये तो बताओ कि कानून तो समाज के लोगों के लिए बनता है सबके लिए होता है। लेकिन मुट्ठी भर की गे सोच वालों के लिए भी यिद कानून बनने लगेगा तो फिर कानून की मौलिकता ही खत्म हो जाएगी। गे सोच वाले आखिर कितने लोग इस समाज में हैं। फिर तो मेरे आफिस के नीचे चाय बनाने वाला भी एक कानून बनाए जाने की डिमांड करने लगेगा। क्योंकि उसका भी एक ग्रुप है और समाज में वह भी रह रहा है । फिर मेरी काम करने वाली बाई , पप्पू पान वाला, चांदनी बार वाली और न जाने कितने मुट्ठी भर लोग हैं जिनके लिए कानून बनना जरूरी हो जाएगा उनके मनमुताबिक। कानून हमेशा उनके लिए बनता है जो समाज के एक बड़े वर्ग का नेतृत्व करता हो न कि चंद लोगों के लिए। जरूरत है कानून की अहमियत बरकरार रखने की ....