बहुत चुभता है जिगर में किसी खंजर की तरह
ये जो मौसम है मेरे सर पे समंदर की तरह
ये जो बादल हैं गरजते हुए चिल्लाते हुए
देखकर लगता है डर बिजली तड़प जाते हुए
कोई तो रोक ले ये टूटकर गिरती बूंदे
शहर के बीच खड़ा नौजवान कहता है
मेरे सीने में इक कच्चा मकान रहता है
ये जो मौसम है मेरे सर पे समंदर की तरह
ये जो बादल हैं गरजते हुए चिल्लाते हुए
देखकर लगता है डर बिजली तड़प जाते हुए
कोई तो रोक ले ये टूटकर गिरती बूंदे
शहर के बीच खड़ा नौजवान कहता है
मेरे सीने में इक कच्चा मकान रहता है
1 comment:
अच्छी कविता है ..... बधाई
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