तकाजा तो था कि
तुम कहते, हम सुनते
जब हम बोलते
तब तुम चुपचाप सुनते
जब मैं बोलता हूं
तब तुम सुनते नहीं
अपनी ही कहेगे तो
कहां पहुंचेंगे सब
कुछ कहेंगे आप
हम तकाजों का करते रहेंगे तकादा
तो कहां जाएगा देश
क्या जनतंत्र कहलाता रहेगा यूं हीं नाखादा
या कहने, सुनने की नातेदारी से
बनेगी बात कोई अब।
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