Wednesday, February 29, 2012

बसंत--- एक

हवा के झोंके पर इठलाता
बरगद का जर्द पत्ता
गिर जाता है जमीन पर
बसंत में उसे बटोर लेना
ताकि कम न पड़ें
लगन के मौसम में
भोज के पत्तल।

बसंत ----- दो

जब बसंत गदराता है
सरसों के हरे खेतों पर
पीलापन खिल जाता है
सरसों के फूलों की
मीठी सुगंध लगती है मादक
उसमें नहीं होती नाक में
धंस जाने वाली झरार गंध

फिर भी
वासंती सरसों की सुगंध
नहीं बनती परफ्यूम!

बसंत -------तीन


अब बसंत निशाचर की तरह
गुपचुप चांदनी रातों में
महुए के दरख्तों पर नहीं आता
और मुलायम मोती की मानिंद
जमीन पर पसर
सुगंध नहीं बिखेरता।


अब बसंत अमराइयों में नहीं
उतरता दबे पांव
पल्लव के कोमल कोर से
अचानक हुलक नहीं पड़ता
खटतूरस स्वाद नहीं जगाता।

टेसू बन दहकता नहीं
अमलताश की शाखों पर
वासंती पहन इतराता भी कहां है
गीतों में भी अब मुश्किल
उतरता है बिंदास बसंत ॥

वित्तमंत्री की चमड़े की
अटैची में बंद पन्नों में
रोशनाई की स्याह इबारतें बन
आता है बसंत अब

अब मुआ बसंत
आता है आमबजट की तरह
दरख्तों से वसूली की योजना बनाता
महसूल के नए-नए मद तैयार करता
जिसे सुन जर्द हो जाते हैं पत्ते और
फाख्ता हो जाते हैं होश की तरह

नई कोंपलों पर छापते हुए
चिंता की लकीरें चला जाता है बसंत
आखिरकार
क्यों न जाए चुपचाप बसंत
क्योंकि आमबजट की तरह
उसमें कहां होता है सपना
बेहतर आबोहवा का आश्वासन।
 

अब तो बस आता है बसंत
बिना किसी ऐलान के
सबकी आंखों में धूल झोंकता
ग्लोबल वार्मिंग का एहसास कराता
दबे पांव चला जाता है चोर की मानिंद।

अपना-अपना बसंत


फागुन में अल्हड़ हवा
खेलती है सरसों के फूलों से
फूलों को बनाती है फली
फली को दानों से भरपूर
दानों में भर देता है कड़वाहट
जिसे पसंद करते हैं लोग

सरसों का रासरंग देख
बौराने लगते हैं आम
धरती पर पथार बन जाता है महुआ
सरसों की तरह तृप्त नहीं होता वह
नहीं उतर पाता उसके मन से नशा
अर्क बन हवा में उड़ने
और फिर पानी बनने तक ।

ठीक वैसे ही जैसे बौराता हुआ आम
नशा उतरने तक भर जाता है रस से
पा जाता है निजात उस कड़वी खटाई से
जो बसंत ने थी कभी जगाई।

और बस अंत


चैती गुलाबों में दहकता बसंत
तपिश पीकर बिखेरता है सुगंध
तब मुंह चिढ़ाता है तपते सूरज को
सोचिए,
कैसे खुशबू मात दे देती है
चिलचिलाते एहसास को।

बसंत--- एक

हवा के झोंके पर इठलाता
बरगद का जर्द पत्ता
गिर जाता है जमीन पर
बसंत में उसे बटोर लेना
ताकि कम न पड़ें
लगन के मौसम में

भोज के पत्तल।

Wednesday, February 22, 2012

प्यास कामरेड


जो नफरत है तुम्हारे दिल में

दरअसल प्यास है वह

कामरेड अपनी समझ सीधी करो
 जैसे मार्क्स ने किया था द्वंद्ववाद को सीधा

 समझो इस बात को

भूख से ज्यादा खतरनाक है प्यास
शोषण, गैर बराबरी, भूख
पूंजीवाद, साम्यवाद सबकी
जड़ है सिर्फ और सिर्फ प्यास  

और
भूख से ज्यादा तेजी से
आदमी को मारती है प्यास।

 


मेरे गांव में



मेरे गांव की युवती
पैंतीस पर पहुंची तो
उसके भीतर से रिस गयी औरत
और
फेसबुक वाली वह औरत
चालीस के बाद भी
करती है चैट
इतराती है किशोरों के बीच


क्यों होता है ऐसा
मिट्टी खोदने में बन जाती है मिट्टी
साग खोंटने में गल जाती है साग बन
कपड़े निचोड़ने में उसके भीतर से
निचुड़ जाती है उसके भीतर से
बूंद-बूंद औरत
मेरे गांव में ही ऐसा क्यों होता है?

ऐसा क्यों होता है कि
मेरे गांव की हर औरत की
देह के साथ घिस जाती है आत्मा भी
गीता ने जिसे कहा
 नैनं दहति पावक:
वही आत्मा जलती है
भुनती है, कुढ़ती है
मेरे गांव में
देह के फुटहे बरतन से
तेजी से क्यों रिस जाती है औरत
मोनोपाज से बहुत-बहुत पहले ही।





































Tuesday, February 14, 2012

दृष्टिकोण


कभी नाक की सीध में
एक उंगली खड़ी कर
आंखे मार-मार देखिए
नजर आएगी
उसकी बदलती स्थिति

आगे बढ़ती है रेलगाड़ी
पेड़ दिखते हैं पीछे भागते हुए

उमस के इंतजार में पड़े
अंखुआ बनने को बेताब बीजों को
कोसते मत रहिए

उनको आत्मसात कीजिए
गलिए, पचिए खाद बनिए
थोड़ा जलिए धूप बनिए
भाफ बनिए और बरसिए
सहिए थोड़ी तपिश, उमस

अचानक एक दिन
भीतर ही भीतर आपके
प्रेम के बीज कल्ले फेंकने लगेंगे।

थोेड़ा नजरिया भर बदलिए
प्यार में क्या नहीं हो सकता।